किस बिन्दु पर एक छोटी, भोली-भाली, नासमझ लड़की गम्भीर हो जाती है, अपने
बारे में, अपने आसपास के संसार में, लिखने-पढ़ने में; किस बिन्दु पर
देस-परदेस का भूगोल, परिभाषा और संज्ञा बदल जाती है, कब अपनी और परदेस की
भाषाएँ आपस में भिन्न हो गुँथ जाती हैं- शायद यह विभाजन रेखा बहुत क्षीण
और धुंधली सी है।
वास्तविक और काल्पनिक चरित्रों, उनके गढ़े हुए जीवन की उलझी-सुलझी
गुत्थियों का हल ढ़ूँढ़ने और उन्हें अपनी दृष्टि से स्वाभाविक और सहज
समापन पर लाते हुए, अपने वर्तमान और अतीत को भी एक समीक्षक की दृष्टि से
देखने की आदत बन गई है। जैसे मेरा जीवन एक पुस्तक है, जिसमें एकदम कुछ
खुला है और कुछ एकदम गोप्य-जो मेरा प्राप्य और संचित पूँजी है; जो कि मेरी
प्रेरणा का स्रोत्र और उत्स है, पर जब वह कहानी या उपन्यास के माध्यम से
पृष्ठों पर बिखरता है तब वह इतना बदला हुआ होता है कि उसमें मेरा कुछ भी
अंश नहीं होता। शायद आत्मकथा और गल्प में यही अन्तर होता है। जीवन
अनुभवों, भावनाओं, विचारों, अनुभूतियों के एक पुतले से तन्तु को लेकर एकदम
नया संसार गढ़ सकना, उसे तरह-तरह के चरित्रों से आबाद करना, इसी से मेरी
वास्तविकता, प्रेरणा और कल्पना का मिश्रण है।
जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, मैंने हमेशा ही कहानियाँ गढ़ी और कहीं-बचपन
में भतीजियों, भानजियों, ममेरी और मौसेरी बहनों को विचित्र मेढ़कों,
सियारों और काली बिल्लियों की कहानियाँ सुनाने में आनन्द आता था। गर्मियों
में तारे भरे खुले आसमान के नीचे खूब तर की हुई छत की मुँडेर पर बैठकर वे
कहानियाँ कहाँ से उपजती थीं और कहाँ खो जाती थीं ? रोज़-रोज़ नई
कहानियाँ-जैसे उनका अन्त ही न था। जैसे मेरे बारह तेहर साल के मन में से
एक अनजान कथाकार बैठा हुआ था, जो न जाने कहाँ-कहाँ से यहाँ कहानियाँ गढ़ता
रहता था। कभी-कभी बच्चों के आग्रह से थक भी जाती थी और ‘एक था
राजा,
एक थी रानी, राजा मर गया, रह गई रानी’ कहकर कथा उत्सव का समापन
कर
देती थी। तब ‘नहीं, नहीं, और-और’ के आग्रह को मैं एक
कठोरता
से ठुकरा देती थी।
तब क्या था मेरा बाल जीवन; कानपुर, लखनऊ और गर्मियों की छुट्टियों में
मामा ब्रजभूषण हजेला की खुली, फैली हुई हवेली या कोठी-जहाँ पर मामा जी के
दो बेटियों के अनन्य स्नेह की अयाचित, अनर्जित वर्षा और छोटे मामा की चार
बेटियों की कहानी सुनने का आग्रह।
पिता का देहान्त मेरी शिशु अवस्था में ही हो चुका था; उस समय परिवार में
माँ, दो बड़ी बहनें; दो ब़ड़े भाई शिब्बन लाल और होरी लाल सक्सेना, पिता
के चाचा, चाची, और उनकी बेटी, चाचा के साले और सलहज, मेरी विगत बुआ की
सौत, जिन्हें पिता ने बहन की तरह अपना लिया था, दादी; और
नौकर-चाकर-महाराज, महाराजिन, मेरी नेपाली आया और ऊपर का काम करने के लिए
बालक मैकू-भैंस, और फोर्ड मोटर कार ! इसके अतिरिक्त भी लोग घर में रहा ही
करते थे; जैसे ममेरे भाई प्रकाश, जो कानपुर में पढ़ रहे थे। पिता की
मृत्यु होते ही घर छिन्न-भिन्न हो गया-चचेरे बाबा अपना घर खरीदकर
साले-सलहज समेत विदा हो गए। शायद प्रकाश की पढ़ाई भी समाप्त हो गई। मेधावी
शिब्बन लाल अपनी प्रोफ़ेसर की नौकरी छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में व्यस्थ
हो गए थे।
उस घर में हम तब तक रहे जब तक मैं छह वर्ष की नहीं हुई-परन्तु जब हम, यानी
माँ और मैं प्राय: छुट्टियों में फतेहगढ़ जाने लगे, तभी मेरे रचनाकार ने
आँखे खोलीं-दादा तब उन्नीस सौ बयालीस के क्रान्ति आन्दोलन के दौरान वर्षों
से जेल में थे, और मैं और माँ (प्रियंवदा देवी) कानपुर लौटकर सम्मिलित
परिवार में रह रहे थे। वह बड़ा सा शानदार घर पिता के चाचा का था, परन्तु
उसमें मेरी युवा, विधवा माँ, या बच्चों का कोई हिस्सा न था। पूरा घर वह
अपने छोटे भाई की पत्नी को दे गए थे, क्योंकि वह भी विधवा हो चुकी थीं और
उन्हें बेटे पालने थे। यह सामाजिक क्रूरता थी या कठोरपन, कि माँ और उनकी
बेटियों के पालन पोषण की जिम्मेदारी में उनका कुछ भी योग न था। जिस समय की
मैं बात कर रही हूँ, वह मेरे जीवन के वह क्षण थे जिन्होंने मेरी
प्रारम्भिक और छात्रजीवन के दौरान लिखी कहानियों को बहुत प्रभावित किया।
मेरी माँ सुन्दर थीं, शिक्षित और आभिजात्य जमींदार परिवार की-पर पिता की
मृत्यु के बाद और दादा की जेल अवधि के दौरान ही मैंने उस छोटी-सी उम्र में
देख और समझ लिया कि भारतीय समाज और संबंधी एक आश्रयहीन महिला के प्रति
कितने क्रूर हो सकते हैं। उनकी हर अवज्ञा और अवहेलना मेरे मन को तीक्ष्ण
तीरों से बांधती, पर छटपटाने और चुप रह जाने के अतिरिक्त उपाय ही क्या था।
माँ हर प्रकार से सुरुचिपूर्ण और सलीकेवाली थीं-जाड़ों भर वह समृद्ध
पड़ोसियों की साटन की रज़ाइयों में पतली-पतली तिरछी गोट लगाकर महीन-महीन
डोरे डालती रहती थीं। किसी ब्याही जाने वाली लड़की को साटन के पेटीकोट और
अन्य वस्त्र सीने में व्यस्त रहती थीं- कभी-कभी कोई साटन का टुकड़ा उठाकर
मुझे दिखातीं और कहतीं-तुम्हारा गरारा-कुर्ता इसमें कैसा अच्छा लगेगा ?
‘‘लगेगा तो !’’ कहकर हम दोनों
चुप हो जाते; मेरा
यथार्थ था उस कम उम्र में ही भारी, मोटी खादी, और माँ के सफेद वस्त्र।
कानपुर में लौटने के पहले माँ ने कभी खाना नहीं बनाया था; पर अब सुबह की
ड्यूटी उनकी थी, फिर भी उन्हें इतना अधिकार न था कि एक पराठा या दो पूरी
बनाकर मुझे स्कूल के लंच के लिए दे सकें। मैं सुबह एक प्याला चाय पीकर
स्कूल चली जाती और खाने की छुट्टी में स्कूल की लाइब्रेरी में वह घण्टा
बिता देती या स्कूल की वाटिका में। माँ की अवज्ञा और अपमान देखकर मेरा बाल
हृदय फटने लगता; यह बात मेरी समझ में बहुत बाद में आई कि वे सब निरादर
करनेवाले निष्ठुर या दयाहीन नहीं थे; वे तो बिना सोचे-समझे एक लीक पकड़कर
चल रहे थे जिसमें एक स्त्री को स्त्रीमात्र ही होने से हीन और क्षुद्र
समझा जाता है। वह एक परिपाटी थी, एक रूढ़िग्रस्त अचेतना और अज्ञान, जिसमें
किसी स्त्री का रूप, गुण, शील न देखकर केवल यह देखा जाता था कि उसका पति
कौन है, क्या है। किसी भी स्त्री को किसी प्रकार अपने
‘स्व’
की पहचान, अपने अनुसार जीवन-यापन करने की स्वतन्त्रता तो दशकों के बाद
मिली।
ननिहाल (कानपुर) जाना मुझे बहुत अप्रिय लगता था, क्योंकि वहाँ सब पुरुषों
और बालकों के बाद भोजन मिलता था; माँ और मैं बरामदे में चुपचाप बैठी
प्रतीक्षा करतीं कि कब बड़े मामाजी और ममेरे भाई भोजन करके निकलें तो अपनी
बारी आए; मेरी बालोचित पर संवेदनशील दृष्टि ने यह भी ग्रहण किया कि
स्त्रियों को जो भोजन मिलता था उसमें रबड़ी, मलाई, जो नियमित रूप से
पुरुषों को परसी जाती थी, न उतने प्रकार के व्यंजन ही। शायद और परिवार की
स्त्रियाँ कभी अपने को इस योग्य ही नहीं समझती होंगी कि उन व्यंजनों की
कामना करें। ऐसा नहीं कि अपने परिवार में माँ का आदर नहीं था, पर मुझे
वहाँ हमेशा अस्तित्व की भावना होती थी; उस पर मेरा तीखा आक्रोश : कि मैं
क्यों भाइयों के कार्य और- गतिविधियों से अलग रखी जाती हूँ। जब मेरे हम
उम्र ममेरे भाई बाहर साइकिल चलाना सीखते तो मैं खिड़की से उन्हें ललचाई
आँखों से देखती रहती। मैंने एक बार सीखने की जिद भी की तो नानी ने हल्के
से कहा, ‘‘तुम लड़की हो...।’’ और
मैं मुँह फुलाकर
जब स्कूल की बस ददिहाल की सड़क परेड़ से गुजरी तो मैं वहीं उतर गई। दादी
ने, जो मेरे पिता की चाची थीं; जब पूछा ‘‘माँ को कहाँ
छोड़ आई
?’’ तो मैंने बताया कि मैं वहाँ नहीं जाऊँगी क्योंकि
वहाँ मैं
लड़की हूँ-कहकर प्रतिबिम्ब लगाए जाते हैं....।’’ तब
दादी ने
कहा, ‘‘बिलकुल सही है। तुम लड़की हो, टाँग-वाँग टूट
गई तो
लँगड़ी से शादी कौन करेगा ? मैं तो तुम्हें आगे पढ़ाने के ही पक्ष में
नहीं हूँ, अभी से चश्मा चढ़ गया है।’’
तब मैं छठी कक्षा पास करके सातवीं में आई थी, दादी के अनुसार मिडिल पास
लड़की काफ़ी क़ाबिल थी।
पर मैं फिर ननिहाल गई जो दादी के घर के केवल मील डेढ़ मील ही दूर था,
क्योंकि माँ मेरे लिए चन्दकान्ता सन्तति के कुछ भाग वहाँ से ले आई थीं।
उन्हें तुरन्त पढ़ लेने के बाद जब मैंने नौकर मैकू को आगे के हिस्से लेने
भेजा तो मामी ने हँसकर कहाँ, ‘‘उससे कहना यहीं आकर
पढ़
ले।’’
वह गर्मी मैंने ननिहाल में बिताई; पिता की मृत्यु के बाद घर खाली करने पर
माँ ने काफ़ी सामान मामाजी के घर भिजवा दिया था, सोफ़ा सेट, बर्तनों के
बक्से; और अपनी प्रिय पत्रिकाएँ-चादँ, माधुरी और उपन्यास। यह सब मैंने छत
पर, बरामदे में या नानी के कमरे में अपने खटोले पर लेटकर दीमक की तरह चाट
डाले। स्कूल खुलने के बाद वहाँ की एक कमरे की लाइब्रेरी में मैंने नियमित
रूप से पढ़ना शुरू किया-शुरूआत हुई बंगला अनुवादों से; ‘माधवी
कंकण’, ‘शशांक’, ‘आनन्द
मठ’-उसी के साथ
जैसे मुझे पढ़ने का नशा सा चढ़ गया। जब फतेहगढ़ में छोटी मामी की अलमारी
में प्रेमचन्द्र, कौशिक, भगवतीचरण वर्मा आदि की पुस्तके मेरे हाथ लगीं तो
जैसे एक अलभ्य कोष मिल गया। उन उपन्यासों में मुझे पहली बार अनुभव हुआ कि
स्त्री जाति की परवशता उसे समाज से मिली है। मेरे अन्दर जो विद्रोह और
अक्रोश के बिन्दु थे, धीरे-धीरे प्रकट होने लगे- फिर भी मेरा दृष्टिकोण
सीमित ही रहा। मेरी प्रारम्भिक कहानियों में अधिकतर स्क्षी पात्र समाज और
परिस्थितियों से उबर नहीं पाए, उनमें एक प्रकार की हताशा भरी स्वीकृति थी।
जो पुस्तकें मेरे मस्तिष्क का पोषण कर रहीं थीं उनमें त्याग, उदारता,
नि:स्वार्थ और अपने सुख का हनन ही चित्रित था- ‘सेवा
सदन’ का
आदर्शवाद अन्त: ‘विषवृक्ष’ और ‘कृष्णकान्त
का
बिल’ में पत्नियों का मौं अन्याय सहन; विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक
की
‘माँ’ में अपने वात्सल्य प्रेम की बलि।
कानपुर, फतेहगढ़; घर से स्कूल, स्कूल से घर-इसमें मेरा जीवन दर्शन या
विस्तृत अनुभवों का समावेश कैसे होता ? मेरी गतिविधियाँ बहुत मर्यादित और
संकुचित थीं, संगीत सुनना, फिल्में देखना या सहेलियों के घर आना-जाना
बिलकुल वर्जित था; छोटी दादी (पिता की चाची नम्बर दो) का रोब सारे घर के
सदस्यों पर था : उनका विश्वास था कि इन सब बातों से लड़कियाँ बिगड़ जाती
हैं; पर अधिक शिक्षित न होने के कारण उन्हें उपन्यास या कहानियों में रुचि
नहीं थी। वह हमारे खंड की ओर कम ही आती थीं, और जब भी आतीं मुझे किताब में
डूबा पाकर बहुत प्रसन्न होतीं और समझती कि मैं स्कूली पुस्तक पढ़ रही हूँ।
वैसे वह बड़ी दादी गुलाब देवी के विपरीत लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई के पक्ष
में थीं और उन्होंने अपनी एकमात्र पुत्री सुशील को बी.ए. कराया था, वह भी
लड़कों के कॉलेज भेजकर, जो कानपुर की कायस्थ बिरादरी के लिए एक
क्रान्तिकारी और पथनिर्देशक घटना थी; जिसका पूरा-पूरा लाभ मुझे
मिला-क्योंकि घर में छोटी दादी रामदेवी का ही दबदबा था, इसलिए ये गुलाब
देवी किसी प्रकार मेरी पढ़ाई न रुकवा सकीं, यद्यपि अपने दो बेटों को
उन्होंने कभी स्कूल जाने या पढ़ने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया, जिससे वह
अपेक्षाकृत अनपढ़ ही रह गए।
इस सब उथल-पुथल और विरोधी दिशाओं में अलग-अलग खिंचने के तनाव के कब मेरे
अन्दर एक कहानीकार को जन्म दिया, मुझे लौटकर देखने पर भी याद नहीं पड़ता।
माँ की स्मरण शक्ति अद्भुत रूप से तीक्ष्ण और विस्तृत थीं, और पूरे परिवार
के सदस्यों में, रस ले-लेकर, रोचक रूप से औरों के किस्से और कार्य-कलापों
का वर्णन बहुत प्रचलित था, शायद वही शैली अनायास, सहज और स्वाभाविक रूप से
मेरी विरासत में आई।
मेरी पहली कहानी बालिका विद्यालय की स्कूल पत्रिका में छपीं थी- उदासी
भरी, करुण और दु:खद अन्त के साथ। शायद आठवीं या नवीं कक्षा में पढ़नेवाली,
अन्तर्मुखी, चुप रहनेवाली एकान्तप्रिय लड़की के अनुभवों का जीवन दर्शन
इसके अतिरिक्त क्या हो सकता था। मैंने तब तक यहीं देखा था, दु:ख को चुपचाप
घूँट लेना; अन्याय के बावजूद कोई प्रतिक्रिया न दिखाना; परिस्थितियों को
रो-धोकर स्वीकार कर लेना; सीमित दायरों में बद्ध रहना, मैं हर ओर यही देख
पा रही थी-और यह स्थितियाँ मेरी सारी प्रारम्भिक कहानियों में चित्रित हुई
हैं। मेरे लेखन का प्रथम सोपान था, उस समय की जनप्रिय पत्रिका
‘सरिता’ में प्रकाशित होने का-तब तक मैं कॉलेज में आ
चुकी थी;
और छात्रावास में रहने लगी थी। जब भी ‘सरिता’ का नया
अंक,
जिसमें मेरी कहानी होती, आता तो छात्रावास में उल्लास की एक हिलोर-सी
उठती, पत्रिका के लिए छीना-झपटी होती-पर उस भोलेपन और बेखबरी की अवस्था
में मेरे लिए वही क्षण प्रतीक्षित रहता जबकि ‘सरिता’
से बीस
रुपए में हर कहानी के पारिश्रमिक के रूप में मिलते। तुरन्त मैं रिक्शा
लेकर बाज़ार जाती और सोलह-सत्रह रुपयों में बेगम बेलिया के किसी खिलते रंग
की सी नागपुरी सूती साड़ी लेकर, सहेलियों के साथ रसगुल्ले और समोसे खाकर
मुदित छात्रावास लौट आती।
कानपुर का बचपन, जिसमें मैंने क्षुधा, तृष्णा और आकांक्षाओं को बहुत नीचे
दफ़ना दिया था, अब पीछे छूट चुका था, अब अपने श्रम और कल्पना से अर्जित
बीस रुपयों का एक शाम में ही उड़ा देना बहुत नशीला अनुभव था। साथ ही, पहली
बार मैं अपनी पसन्द को पहचान रही थी और अपने अनुसार अपने कपड़े खरीदने और
पहनने का सुख भी। मैं नियमित रूप से लिख रही थी, परन्तु मैंने गम्भीरता
पूर्वक नहीं लिया-कथानकों, चरित्रों का एक अनवरत प्रवाह कहीं अन्दर से
प्रस्फुटित होता रहता था, परन्तु उसको तराशने, काँट-छाँट या मोड़ने-तोड़ने
का विचार मुझे कभी नहीं आया। कहानी लिख गई तो बिना कापी रखे उसे वैसा का
वैसा ही छपने के लिए भेज दिया-इसी कारण मेरी प्रारम्भिक कहानियों में पचास
प्रतिशत उपलब्ध नहीं हैं।
अचानक मेरा ‘सरिता’ के लिए लिखना और कहीं भी प्रकाशित
होना
चूक गया। मेरे लेखन जीवन में अक्सर लम्बे-लम्बे अन्तराल आए हैं, शायद यह
पहला लम्बा अन्तराल था, जिसमें पाठकों में प्रिय
‘उषा’ मौन हो
गई थी। कहीं खो सी गई थी।
इसका एक बहुत बड़ा बाह्य कारण था मेरा बदलता हुआ परिवेश, दादा स्वतन्त्रता
के बाद जेल से छूटकर संसद सदस्य हो गए थे और हम सब; माँ, मैं, बड़ी बहन
कामिनी, छोटे भाई और उनकी बेटियाँ एक भव्य कोठी में रहने लगे थे जो संसद
सदस्यों के लिए ही थी। उसमें बाहर उद्यान भी था, माली, नौकर, पर सबसे बड़ा
अन्तर जो मेरे जीवन में आया, वह भारत के नामी, प्रथम पंक्तिवाले
स्वतन्त्रता सेनानियों को देखना, सुनना। जो नाम अख़बार में अगले दिन पढ़ने
में आते थे, वह विगत शाम अपनी बैठक में दादा के साथ दिखाई दे चुके होते थे।