Wednesday, 16 November 2011

भंवरी देवी केस विश्लेषण: जिधर ढलान होती है, पानी उधर ही बहता!

भंवरी प्रकरण का जाल मीडिया ने नहीं बुना। जाल बुनने वाले और जाल का पर्दाफाश करने वाले भी इस प्रकरण के भंवर जाल में फंसे लोग थे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या प्रिंट मीडिया ने तो इस जाल के ताने बानों और उसके तंतुओं को उधेड़कर दिखाया या छापा है। 

क्या ऐसा करना गुनाह है? आखिर मीडियाकर्मियों पर बेवजह बौखलाने और उस पर हमला करने के लिए उकसाने की जरूरत क्या थी? उन पर हमला क्यों किया गया? इस प्रकरण की भनक तो सरकार को डेढ़-दो माह पहले ही लग चुकी थी। वह कोशिश कर रही थी कि प्रकरण का पर्दा तार-तार न हो। 

शायद इसीलिए उसने जांच सीबीआई को सौंपी। उसी के बाद तो तेज गति के साथ ढलान की तरफ पानी बहने लगा । प्रकरण के सुराखों के सुराग एक-एक कर उजागर होने लगे और जब मैली चादरें तार-तार होने लगीं, तो उसकी बौखलाहट मीडिया पर क्यों उतरी? आखिर गंभीरता से सोचें कि जांच कौन कर रहा है? 

जांच करवा कौन रहा है? जांच की जरूरत क्यों पड़ी? क्या इन सबके लिए मीडिया दोषी है? इस बात को उठाना क्या गुनाह है कि आखिर भंवरी का हश्र क्या हुआ ? यदि ऑडियो और वीडियो सीडी बाजार में आ जाए तो क्या यह खबर छापना और दिखाना जुर्म है? 

जो इस मसले पर बौखला रहे हैं उनका भी असल उद्देश्य है सत्य का पता लगाना और मीडियाकर्मी भी वही कर रहे हैं। ऐसे में पुलिस और प्रशासन के समक्ष उनकी ठुकाई क्यों? पुलिस, प्रशासन और सरकार भी इस बारे में गंभीरता से सोचे। ऐसी घटनाओं की जांच की जाकर दोषियों को सजा हो और इनकी पुनरावृत्ति न हो।

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