अनामिका, वीरागना, दामिनी या निर्भया। आपको इनमें सबसे अच्छा नाम कौन सा लगा? सभी अच्छे हैं न! अगर मुझसे पूछेंगे तो मैं कहूंगी, अच्छे सब हैं, पर सच्चा कोई नहीं। मेरे हिसाब से भारतीय युवतियों पर ये नाम नहीं जंचते। उनके नाम होने चाहिये - नीरव, नि:शब्द या खामोश।
आज सारा देश उन्माद में है। विद्रोह का कोलाहल है। हर तरफ बलात्कार के खिलाफ नारे लग रहे हैं। मैं फिर भी शात हूं। सोच रही हूं, क्या ये कोलाहल हमारे समाज को कोई दिशा दे सकता है? क्या हमारे पास इस दानवता से निपटने का कोई और तरीका है?
मेरे हिसाब से जो शक्ति नारी के दो शब्दों में है वो हुजूम के नारों में नहीं, पर इस देश में कितनी ऐसी किशोरियां हैं जो पुरुष उत्पीड़न या छेड़छाड़ के खिलाफ आवाज उठाने की शक्ति रखती हैं? हर नारी को कहीं न कहीं, कभी न कभी अपने बचपन या कैशोर्य में पुरुषों के अवाछनीय व्यवहार का सामना करना पड़ा है। कैशोर्य के दहलीज पर खड़ी बच्ची के सीने पर घूमती गिद्ध सी नजरें, दर्जी का वह टेप जो हर उस जगह का नाप लेता है जिसकी सिलाई में कोई आवश्यकता नहीं या वह दिल का बीमार डॉक्टर जो नाड़ी के बदले, बदन का वो हर हिस्सा स्पर्श करना चाहता है जिसका मर्ज से कोई सरोकार नहीं या फिर वो चाचा या मामा जिसमें रिश्ते की निर्मलता नहीं, बल्कि वासना की लौलुपता होती है। हममें से कितनी ऐसी हैं जिन्होंने इसके खिलाफ बचपन में आवाज उठायी है? अगर उठाई होती तो शायद हम आज जंतर-मंतर या इंडिया गेट के हुजूम के कोलाहल के आश्रित न रहते।
आज की लड़कियां, जो जमाने के अनुसार आधुनिक और स्वच्छंद हो चली हैं, उनमें भी इतनी उन्मुक्तता नहीं कि वो पुरुषों के दुराचार के खिलाफ आवाज उठा सकें, वो हमेशा यह दिखाती हैं कि मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। मैं खुद ही कितनी ऐसी लड़कियों को जानती हूँ जो हर प्रकार से आधुनिक होने के बावजूद बस में चुपचाप बैठी रहेंगी बावजूद इसके कि बगल का मर्द सोने का बहाना कर उन पर झूल रहा होगा या फिर सीट के नीचे उसकी टांगें अपने पाले को लांघ बिना वजह उनकी जींस को छू रहीं होंगीं। मैं ऐसी युवतियों को भी जानती हूं जो आठ घटे की अंतरराष्ट्रीय उड़ानों में बिल्कुल सीट के कोनों में दुबककर बैठी रहेंगी चाहे किनारे की सीट पर सोया हुआ सह यात्री बार-बार ऊंघता हुआ उनके सीने पर सिर मारता रहे।
आखिर लड़कियां क्यों चुप रहती हैं? इसलिये कि उन्हें समाज से डर लगता है या इसलिये कि हो सकता है पास बैठा मर्द मासूम हो! या फिर मां-बाप ने हमेशा ये सिखाया है, जाने दो या फिर इस भय से कि लोग कहेंगें तुम्हीं ने डोरे डाले थे!
आज पुरुष वर्ग में स्त्री निर्बलता चुटकुलों का विषय है। मुझे आज भी याद है जब मेरी मेरी एक सहेली अपनी आपबीती सुना रही थी तो एक पुरुष मित्र ने कहा, अगर मैं होता तो मैं भी यही करता, क्योंकि आप हैं ही इतनी सुंदर।
इस देश में हर वर्ग का स्त्रियों के प्रति एक ही दृष्टिकोण है। कुछ दिनों पहले जब मुंबई में गेटवे पर एक मासूम विदेशी पर्यटक को दुर्व्यवहार के बाद निर्ममता से मौत के घाट के उतार दिया गया था तो एक अंतरराष्ट्रीय स्तर के अखबार ने मत रखा था कि लड़की के साथ ऐसा इसलिये हुआ, क्योंकि उसने आमंत्रित करने वाले छोटे-छोटे कपड़े पहन रखे थे। मानो छोटे कपड़े कोई आवरण नहीं, बल्कि आमंत्रण हैं!
मुझे खुशी है कि वक्त बदल रहा है और उसके साथ हमारे देश की लड़कियां भी बदल रही हैं। मेरी एक सहेली ने मुझे बताया कि कैसे उसकी बिटिया ने जब अपने एक रिश्तेदार को उसके साथ बदतमीजी करते हुये देखा तो पूरे परिवार में ढिंढोरा पीट दिया। उसने न सिर्फ अपने मां-बाप को बताया, बल्कि अपने दादा और नाना से भी इसका जिक्र किया, पर इस देश की कितनी ऐसी लड़कियां ऐसा कर सकती हैं? लड़कियों को इस बात का अहसास होना जरूरी है कि आज के समाज में दु:शासनों की संख्या महाभारत के युग से कहीं अधिक है। हमें अपनी बच्चियों को आवाज उठाने की आदत बचपन से डालनी होगी। बदतमीजी चाहे कितनी भी छोटी हो; अपनों की हो या परायों की, लड़कियों को तुरंत आवाज उठानी होगी। चुप्पी साधना इस सामाजिक अपराध को बढ़ावा देना है ।
अनामिका, दामिनी, वीरागना, निर्भया! उतिष्ठ!! जागृत!!
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