Tuesday 11 October 2011

हम जिसे गुनगुना नहीं सकते वक्त ने ऐसा गीत क्यों गाया

जगजीत सिंह। अपनी आवाज से जग जीता, पर खुद वक्त से हारे। पहले एकमात्र बेटे के जाने का दुख, फिर गोद ली हुई बेटी.. और अब खुद.. उनकी जिंदगी नज्मों, गीतों, गजलों और बंदिशों को आवाज देने वाली उस रात की तरह थी, जिसका सूरज रोज गुम होता रहा.. जिसे अपना चांद रोज बेलना पड़ा।

अपनी आवाज और हुनर से उन्होंने दुनियाभर में खुशी और सुकून बांटा, लेकिन उनके खुद के लिए यह सबकुछ कड़वा ही रहा-चाहे वो चांद-सूरज की सुंदरता हो, सुबह की पहली किरणों का संगीत हो, गहरी रातों की खामोशी हो, पत्तों में से छनती हुई मेह की बूंदें हों, चाहे घास पर फिसलती हुई ओस हो।

उनका गायन हमेशा गंभीरता की मखमली चादर ओढ़कर लोगों तक पहुंचता था। जितनी गंभीर आवाज थी, उससे ज्यादा गंभीरता चेहरे पर। शास्त्रीय गायिकी में एक विकार होता है, जो गायक के होंठों पर दिखता है। गाते वक्त मुंह कुछ अजीब लगता है, वही जगजीत सिंह में भी था।
कई लोग हैं, जो कहते थे कि जगजीत सिंह गजल क्यों गाते हैं? मंचों पर शास्त्रीय गायन क्यों नहीं करते? लेकिन वही लोग यह भी जानते हैं कि गजल, गीत, शास्त्रीय बंदिशें और लोकगीत, चारों शैलियों में जिसने जब भी जगजीत सिंह को सुना, उसके मन का जगजीत और भी निखरता गया। ऐसा कम होता है। इस दौर में तो न के बराबर।

गायन की सभी शैलियों में उनकी महारत और गायिकी की उनकी गंभीरता ही थी, जिसने उन्हें हर दौर में एक ही स्थान पर बनाए रखा-शिखर पर। एकदम स्थिर। कभी न हिलने-डुलने वाली चट्टान की तरह। चट्टान इसलिए भी कि जगजीत सिंह ने ही गजल को लोकप्रियता दी।
बच्चों में, युवाओं में, वरिष्ठों में और बुजुर्गो में, एक साथ। किसी ने उनकी गजल को पकड़ कर अपना इश्क परवान चढ़ाया, किसी ने अपनी जिंदगी की मंजिल पाई और बहुतों ने गजल को ही अपना प्रोफेशन बनाया। एक उदाहरण लीजिए कि- कागज की कश्ती हम सबने अपने बचपन में तैराई, नानी की कहानियां भी सुनीं, लेकिन वे सब याद तब आईं, जब जगजीत ने गजल गाई- वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी..

यकीन से कहा जा सकता है कि उन्हें जानने-सुनने वालों को आज की रात नींद नहीं आने वाली। जिन आंखों में आंसू लबालब हों, आखिर नींद उनमें कैसे समाएगी! आज जिस जिंदगी ने जगजीत सिंह का साथ छोड़ दिया है, उसे हम दिवंगत कवयित्री अमृता प्रीतम से मिला दें तो उनकी कलम से जो नज्म लिखी जाएगी- कुछ इस तरह होगी.. जगजीत सिंह के नाम, उन्ही की जिंदगी की लिखी हुई नज्म..

खुदा तेरी नज्म जितनी तुझे उम्र दे मैं इस नज्म का मिसरा नहीं ज्यों और मिसरों के साथ चलती रहूं और एक काफिये की तरह तुझसे मिलती रहूं मैं इस नज्म से निकली हूं इस तरह!

जैसे शब्दों से अर्थ निकलते हैं और बदनसीब अर्थो का क्या जिस तरह आज एक अर्थ निकला है कल कोई नामुराद और अर्थ निकलेगा पर नज्म इस जग पर सलामत रहे और खुदा तेरी नज्म जितनी तुझे उम्र दे

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