पिछले कॉमनवेल्थ गेम्स में स्वर्ण पदक जीतने वाली दीपिका कुमारी ने कई अन्य
प्रतियोगिताओं में भी निशानेबाजी प्रतिस्पर्धा में पदक जीते हैं। बिल्कु
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निचले पायदान से निशानेबाजी के खेल में शुरुआत करने वाली दीपिका आज
अंतरराष्ट्रीय स्तर की शीर्ष खिलाडिम्यों में से एक हैं। उनकी सफलता के
क्या मूलमंत्र रहे हैं, बता रही हैं मानसी मिश्रा
दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में दीपिका कुमारी ने स्वर्ण पदक हासिल किया था। रांची से कुछ दूरी पर स्थित एक गांव में छोटे से दुकाननुमा घर में रहने वाली दीपिका ने अंतरराष्ट्रीय फलक पर तीरंदाजी से ऐसा परचम लहराया कि वो देखते ही देखते झारखंड से लेकर पूरे देश की धरोहर बन गयीं। वर्ष 2005 में दीपिका ने अर्जुन आर्चरी अकेडमी में दाखिला लिया था। यह अकेडमी झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा की पत्नी मीरा मुंडा ने खरसावां में शुरू की थी। यहां से नींव पड़ी तो रास्ता टाटा अकेदमी जमशेदपुर की ओर मुडा़। दीपिका ने यहां तीरंदाजी के दांव-पेच सीखे। यहां से शुरू हुए सफर ने दीपिका को विश्व की नम्बर वन तीरंदाज का तमगा हासिल कराया। हालांकि वर्तमान में वो विश्व की दूसरे नंबर की तीरंदाज हैं। सबसे पहले वर्ष 2009 में महज 15 वर्ष की दीपिका ने अमेरिका में हुई 11वीं यूथ आर्चरी चैम्पियनशिप जीत कर अपनी उपस्थिति जाहिर की थी। फिर 2010 में एशियन गेम्स में कांस्य हासिल किया। इसके बाद इसी वर्ष कॉमनवेल्थ खेलों में महिला एकल और टीम के साथ दो गोल्ड हासिल किये। फिर इस्तांबुल में 2011 में और टोक्यो में 2012 में एकल खेलों में रजत पदक जीता। इस तरह एक-एक करके दीपिका जीत पर जीत हासिल करती गईं। इसके लिए उन्हें अर्जुन अवॉर्ड दिया गया। हाल ही में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी दीपिका को सम्मानित किया। 2006 में घर से टाटा अकेडमी गई दीपिका तीन साल बाद यूथ चैम्पियनशिप जीत कर ही घर लौटीं। दीपिका को वहां भत्ते के रूप में मिलने वाले 500 रुपये के अलावा अपने पिता से नाममात्र की मदद मिलती रही थी। आइये यहां जानें दीपिका की सफलता के मंत्र— लक्ष्य पर केंद्रित
बचपन से ही दीपिका अपने लक्ष्य पर केंद्रित रही हैं। दीपिका की मां गीता बताती हैं कि बचपन में दीपिका एक दिन मेरे साथ जा रही थी कि रास्ते में एक आम का पेड़ दिखा। दीपिका ने कहा कि वो आम तोडेगी। मैंने उसे मना किया कि आम बहुत ऊंची डाल पर लगा है, वो नहीं तोड़ पायेगी, तो उसने कहा, नहीं आज तो मैं इसे तोड़ कर ही रहूंगी। उसने जमीन से पत्थर उठा कर निशाना साधा। पत्थर सीधे टहनी से टकराया और आम गिर गया। दीपिका का वो निशाना देख कर मुझे हैरानी हुई। ठीक वैसे ही जिंदगी में भी दीपिका जो लक्ष्य बना लेती है, उसे हासिल करके दिखाती है। उसने वैसा ही किया भी है। जिस गांव में आज भी बिजली-पानी की सप्लाई तक नहीं है, वहां तीरंदाजी की दिशा पकड़ना किसी धनुर्धर की ही निष्ठा हो सकती है। मेहनत ही मूल मंत्र
कड़कड़ाती ठंड में सुबह पांच बजे जब रजाई छोड़ना नामुमकिन-सा होता है, नींद अपने चरम पर होती है, ठीक इसी वक्त बिना किसी के जगाये दीपिका मैदान में होती थी। दीपिका की मां ने बांस से उसके लिए एक धनुष तैयार किया था, जिसे लेकर दीपिका अकेले ही अभ्यास शुरू कर देती थी। अपनी चचेरी बहन विद्या कुमारी से प्रेरणा लेकर उसने टाटा एकेडमी जमशेदपुर में दाखिला लिया। दीपिका ने तीरंदाजी के साथ-साथ पढ़ाई भी जारी रखी। इसी वर्ष दीपिका ने बारहवीं की परीक्षा द्वितीय स्थान से पास की है। उनकी मेहनत का ही नतीजा है कि वह पढ़ाई और खेल एकसाथ कर पाईं। दीपिका कहती हैं, ‘मेहनत के लिए मुझे पिता से प्रेरणा मिली। मेरे पापा ने टेम्पो चला कर न सिर्फ परिवार चलाया, बल्कि हमारे सपने भी पूरे किये। उन्हें मेरे लिए आर्चरी किट खरीदने के लिए टैम्पो बेचना पड़ा था, लेकिन उन्होंने एक बार भी नहीं सोचा और मुझे किट दिलाई।’ सपनों के पीछे पड़ जाना
अमूमन हम सिर्फ सपने देखते हैं और उन्हें भूल जाते हैं, लेकिन दीपिका इस मामले में कुछ अलग है। वह सपने देखती हैं और फिर उनके पीछे पड़ जाती हैं, जब तक वो सच न हों। आज तक ऐसे ही सपनों का पीछा करते वो दुनिया में नंबर एक पर पहुंच चुकी हैं। सपनों के बारे में दीपिका का कहना है कि सपने देखते सब हैं, लेकिन उन्हें जीने का माद्दा किसी-किसी में होता है। दीपिका के पिता शिव नारायण कहते हैं, ‘मैंने कभी हालात को बेटी के सपनों की राह का रोडम नहीं समझा। आज भी मेरे घर की आर्थिक स्थिति बहुत नहीं सुधर सकी है। तमाम आश्वासनों के बाद भी हालात वैसे के ही वैसे हैं। मैं ऑटो चलाता हूं और उसी घर में रहता हूं। पर बेटी कहती है कि पापा मेरा सपना है कि हम सब बहुत अच्छे हालत में रहेंगे।’, धैर्य से सामना करना
तीरंदाज दीपिका कुमारी में गजब का धैर्य है। एकदम शांत और गंभीर दीपिका का ध्यान सिर्फ अपने निशाने पर रहता है.. अर्जुन की तरह धनुष अपने हाथ में लेकर मछली की आंख की तर्ज पर दीपिका भी अपना निशाना साधती हैं। दीपिका अक्सर मीडिया और लोगों के सामने भी चुप ही रहती हैं, सिर्फ अपनी बात कहने के लिए बोलती हैं। यही धैर्य उन्हें और आत्मविश्वासी बनाता है। एक अकाट्य निशानेबाज, एक खिलाड़ी और एक सफल व्यक्ति में धैर्य का होना बहुत जरूरी है। दूसरों पर भरोसा
दीपिका की सफलता का सबसे बड़ा मूलमंत्र है उनका खुद के साथ-साथ अपने गुरुओं, प्रशिक्षुओं और साथियों पर पूरा भरोसा। शिव नारायण महतो बताते हैं कि दीपिका ने जिन लोगों से सीखा, उन पर पूरा भरोसा किया। हर कदम पर जब-जब दीपिका को सराहना मिली, उसने अपने गुरुओं को श्रेय दिया। आज भी वो अपने पहले गुरु निशानेबाज हिमांशु का बहुत सम्मान करती हैं। यही वजह है कि दीपिका के गुरु भी उस पर पूरा भरोसा करते हैं। दीपिका के अनुसार सीखने के लिए संस्था और व्यक्ति पर विश्वास करना बेहद जरूरी होता है।
दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में दीपिका कुमारी ने स्वर्ण पदक हासिल किया था। रांची से कुछ दूरी पर स्थित एक गांव में छोटे से दुकाननुमा घर में रहने वाली दीपिका ने अंतरराष्ट्रीय फलक पर तीरंदाजी से ऐसा परचम लहराया कि वो देखते ही देखते झारखंड से लेकर पूरे देश की धरोहर बन गयीं। वर्ष 2005 में दीपिका ने अर्जुन आर्चरी अकेडमी में दाखिला लिया था। यह अकेडमी झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा की पत्नी मीरा मुंडा ने खरसावां में शुरू की थी। यहां से नींव पड़ी तो रास्ता टाटा अकेदमी जमशेदपुर की ओर मुडा़। दीपिका ने यहां तीरंदाजी के दांव-पेच सीखे। यहां से शुरू हुए सफर ने दीपिका को विश्व की नम्बर वन तीरंदाज का तमगा हासिल कराया। हालांकि वर्तमान में वो विश्व की दूसरे नंबर की तीरंदाज हैं। सबसे पहले वर्ष 2009 में महज 15 वर्ष की दीपिका ने अमेरिका में हुई 11वीं यूथ आर्चरी चैम्पियनशिप जीत कर अपनी उपस्थिति जाहिर की थी। फिर 2010 में एशियन गेम्स में कांस्य हासिल किया। इसके बाद इसी वर्ष कॉमनवेल्थ खेलों में महिला एकल और टीम के साथ दो गोल्ड हासिल किये। फिर इस्तांबुल में 2011 में और टोक्यो में 2012 में एकल खेलों में रजत पदक जीता। इस तरह एक-एक करके दीपिका जीत पर जीत हासिल करती गईं। इसके लिए उन्हें अर्जुन अवॉर्ड दिया गया। हाल ही में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी दीपिका को सम्मानित किया। 2006 में घर से टाटा अकेडमी गई दीपिका तीन साल बाद यूथ चैम्पियनशिप जीत कर ही घर लौटीं। दीपिका को वहां भत्ते के रूप में मिलने वाले 500 रुपये के अलावा अपने पिता से नाममात्र की मदद मिलती रही थी। आइये यहां जानें दीपिका की सफलता के मंत्र— लक्ष्य पर केंद्रित
बचपन से ही दीपिका अपने लक्ष्य पर केंद्रित रही हैं। दीपिका की मां गीता बताती हैं कि बचपन में दीपिका एक दिन मेरे साथ जा रही थी कि रास्ते में एक आम का पेड़ दिखा। दीपिका ने कहा कि वो आम तोडेगी। मैंने उसे मना किया कि आम बहुत ऊंची डाल पर लगा है, वो नहीं तोड़ पायेगी, तो उसने कहा, नहीं आज तो मैं इसे तोड़ कर ही रहूंगी। उसने जमीन से पत्थर उठा कर निशाना साधा। पत्थर सीधे टहनी से टकराया और आम गिर गया। दीपिका का वो निशाना देख कर मुझे हैरानी हुई। ठीक वैसे ही जिंदगी में भी दीपिका जो लक्ष्य बना लेती है, उसे हासिल करके दिखाती है। उसने वैसा ही किया भी है। जिस गांव में आज भी बिजली-पानी की सप्लाई तक नहीं है, वहां तीरंदाजी की दिशा पकड़ना किसी धनुर्धर की ही निष्ठा हो सकती है। मेहनत ही मूल मंत्र
कड़कड़ाती ठंड में सुबह पांच बजे जब रजाई छोड़ना नामुमकिन-सा होता है, नींद अपने चरम पर होती है, ठीक इसी वक्त बिना किसी के जगाये दीपिका मैदान में होती थी। दीपिका की मां ने बांस से उसके लिए एक धनुष तैयार किया था, जिसे लेकर दीपिका अकेले ही अभ्यास शुरू कर देती थी। अपनी चचेरी बहन विद्या कुमारी से प्रेरणा लेकर उसने टाटा एकेडमी जमशेदपुर में दाखिला लिया। दीपिका ने तीरंदाजी के साथ-साथ पढ़ाई भी जारी रखी। इसी वर्ष दीपिका ने बारहवीं की परीक्षा द्वितीय स्थान से पास की है। उनकी मेहनत का ही नतीजा है कि वह पढ़ाई और खेल एकसाथ कर पाईं। दीपिका कहती हैं, ‘मेहनत के लिए मुझे पिता से प्रेरणा मिली। मेरे पापा ने टेम्पो चला कर न सिर्फ परिवार चलाया, बल्कि हमारे सपने भी पूरे किये। उन्हें मेरे लिए आर्चरी किट खरीदने के लिए टैम्पो बेचना पड़ा था, लेकिन उन्होंने एक बार भी नहीं सोचा और मुझे किट दिलाई।’ सपनों के पीछे पड़ जाना
अमूमन हम सिर्फ सपने देखते हैं और उन्हें भूल जाते हैं, लेकिन दीपिका इस मामले में कुछ अलग है। वह सपने देखती हैं और फिर उनके पीछे पड़ जाती हैं, जब तक वो सच न हों। आज तक ऐसे ही सपनों का पीछा करते वो दुनिया में नंबर एक पर पहुंच चुकी हैं। सपनों के बारे में दीपिका का कहना है कि सपने देखते सब हैं, लेकिन उन्हें जीने का माद्दा किसी-किसी में होता है। दीपिका के पिता शिव नारायण कहते हैं, ‘मैंने कभी हालात को बेटी के सपनों की राह का रोडम नहीं समझा। आज भी मेरे घर की आर्थिक स्थिति बहुत नहीं सुधर सकी है। तमाम आश्वासनों के बाद भी हालात वैसे के ही वैसे हैं। मैं ऑटो चलाता हूं और उसी घर में रहता हूं। पर बेटी कहती है कि पापा मेरा सपना है कि हम सब बहुत अच्छे हालत में रहेंगे।’, धैर्य से सामना करना
तीरंदाज दीपिका कुमारी में गजब का धैर्य है। एकदम शांत और गंभीर दीपिका का ध्यान सिर्फ अपने निशाने पर रहता है.. अर्जुन की तरह धनुष अपने हाथ में लेकर मछली की आंख की तर्ज पर दीपिका भी अपना निशाना साधती हैं। दीपिका अक्सर मीडिया और लोगों के सामने भी चुप ही रहती हैं, सिर्फ अपनी बात कहने के लिए बोलती हैं। यही धैर्य उन्हें और आत्मविश्वासी बनाता है। एक अकाट्य निशानेबाज, एक खिलाड़ी और एक सफल व्यक्ति में धैर्य का होना बहुत जरूरी है। दूसरों पर भरोसा
दीपिका की सफलता का सबसे बड़ा मूलमंत्र है उनका खुद के साथ-साथ अपने गुरुओं, प्रशिक्षुओं और साथियों पर पूरा भरोसा। शिव नारायण महतो बताते हैं कि दीपिका ने जिन लोगों से सीखा, उन पर पूरा भरोसा किया। हर कदम पर जब-जब दीपिका को सराहना मिली, उसने अपने गुरुओं को श्रेय दिया। आज भी वो अपने पहले गुरु निशानेबाज हिमांशु का बहुत सम्मान करती हैं। यही वजह है कि दीपिका के गुरु भी उस पर पूरा भरोसा करते हैं। दीपिका के अनुसार सीखने के लिए संस्था और व्यक्ति पर विश्वास करना बेहद जरूरी होता है।
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