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पूर्वाचल में पर्यावरण संरक्षा परम्परा के संवाहक वृक्ष व निर्मित कुंडों ने नहीं चलने दी मौसम की मनमानी। अंकुश बन डोलते रहे पर्यावरण पर होने वाले हमले। व्यक्ति की सोच पर आधारित इस व्यवस्था को व्यक्ति ने ही तार-तार कर दिया। आदमी ही चाट गया जंगल और घोंट गया कुंड। वजूद के लिए जूझ रहे अपने ही जल में जैसे डूबने से लगे हैं सरोवर।
बलिया, मऊ, गाजीपुर, जौनपुर, सोनभद्र, भदोही और चंदौली की हद में आने वाले वृक्ष, कुंड-जलाशयों की तस्वीर देखी जाय तो अधिकतर पेड़ों को चबा गए ठेकेदार और दबंगों के घर में समा गए कुंड। हैरत की बात तो यह है कि इनकी रक्षा का बीड़ा उठाने वाली सरकारी एजेंसी पर्यावरण के इन दुश्मनों से निभाती रही है दोस्ती। बलिया और चंदौली को टटोलें, नमूने के तौर पर यहां के महत्वपूर्ण सरोवरों की जो सूरत है वह दर्शाती है कि हांड़ी में किस हाल में हैं चावल के दाने। बलिया के सिकंदरपुर में इतिहास संकट में है। यहां के कई महत्वपूर्ण पोखरों की दशा दयनीय है।
अतिक्रमण से जूझ रहे पोखरों का वजूद दांव पर है। मुगलशासक सिकंदर लोदी के बनवाए किले का पोखरा हो या गुप्तकाल में बने रानी का सागर, चतुर्भुज नाथ का पोखरा सभी उपेक्षा के शिकार होकर दम तोड़ रहे हैं। रसड़ा में आते हैं तो हम पाते हैं कि श्रीनाथ सरोवर, खिरोधर, सरयू और शिव पोखरे की भी हालत वही है। टूटे, फूटे, लावारिस और निहंग। अचरज यह कि विकास का दम भरने वाली जिला प्रशासन की इकाई उतनी ही निर्बल, निर्धन और असहाय। चंदौली-चकिया में रानी की बावली की कोख में छिपा है चार सौ साल का इतिहास। स्थापत्य कला की यह बेजोड़ बावली प्रशासनिक अनदेखी की शिकार है। शिकारगंज आइए तो पूर्व काशिराज परिवार द्वारा बनाए गए तालाब की आखों में मिलेंगे अपनी बदहाली के मोटे-मोटे आंसू।
मुगलसराय के राममंदिर क्षेत्र में अवस्थित सौ साल पुराना तालाब बन गया है दूषित जल की पोखरी। कभी आस्था व विश्वास का प्रतीक रहा यह तालाब अतिक्रमणकारियों का शिकार होकर रह गया है और जिला प्रशासन है कि अपनी अकर्मण्यता पर ही आत्म मुग्ध है।
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