उनको कौन नहीं जानता? अपने उजले कामों के जरिये उन्होंने देश-दुनिया में
खासा नाम कमाया है। पिछले हफ्ते नई दिल्ली में आयोजित ‘हिन्दुस्तान टाइम्स
लीडरशिप समिट’ में तीनों को एक साथ देखने-सुनने का मौका मिला। उनकी बातें
सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए, तो कइयों की आंखें भर आईं। नाम
उजागर करने से पहले उनकी पीड़ा और सरोकारों से आपको अवगत कराता हूं।
अनुमान लगा देखिए कि ये अतिविशिष्ट व्यक्तित्व कौन हैं, जिनके दर्द आम
हिन्दुस्तानी नारी से इस कदर मिलते-जुलते हैं- ‘मैं यहां अपनी आपबीती बयान
करने नहीं आई। बस इतना ही कहना चाहूंगी कि मैं भी यौन उत्पीड़न की शिकार
हुई हूं, जिसने मुझे बेहद तकलीफ पहुंचाई है। इस देश में पुरुषों की सोच
बदलनी बेहद जरूरी है। इसके लिए शैक्षिक कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए और
मीडिया को नारी-हकों के लिए आवाज बुलंद करनी चाहिए।’
‘मैं जब पैदा हुई, तो अस्पताल में मुझे देखने के लिए पिता नहीं आए, क्योंकि मैं कन्या थी और लड़की का पैदा होना अच्छा नहीं माना जाता था। यह तब हुआ, जब मैं तीन भाइयों के बाद पैदा हुई थी। इस देश में महिलाओं के लिए सम्मान क्यों नहीं है? उन्हें उपेक्षा की नजरों से क्यों देखा जाता है? वे सिर्फ भोग की वस्तु क्यों समझी जाती हैं? पुरुष का मन होता है, तो कभी उन्हें लक्ष्मी, कभी सरस्वती और कभी शक्ति का अवतार बता देता है, पर मुझे अपनी पीड़ा से ज्यादा इस बात पर फा है कि मैं ही हूं, जो आदमियों को जनती हूं।’ ‘मेरी 23 साल की बेटी हर रोज अंधेरी से चर्चगेट स्टेशन के लिए लोकल पकड़ती है। वह एक लॉ इंटर्न है। कानून की पढ़ाई करने वाली मेरी यह बच्ची जब घर से निकलती है, तो अपने सीने को बैग से ढके रहती है।
ऐसा लगता है, जैसे वह हर रोज दृढ़ निश्चय के साथ रवाना होती है- उन लोगों से जूझने के लिए, जो मुं
बई में कभी भी किसी लड़की से छेड़छाड़ कर
देते हैं। संसद ने पिछले दिनों महिलाओं के उत्पीड़न से संबंधित जो कानून
पास किया, उसे रचने में मेरी भी भागीदारी थी। इस नए कानून पर लंबे
बहस-मुबाहिसे के दौरान मुझे अक्सर अपनी बच्ची याद आती थी। ऐसा लगता कि मैं
देश की महिलाओं की रक्षा के लिए कानून बनाने में इतनी सक्रिय भूमिका अदा कर
रही हूं, पर खुद अपनी बेटी की सुरक्षा करने में कितनी असहाय हूं?’
कहने की जरूरत नहीं कि हमारे घरों की महिलाएं भी ऐसा ही सोचती और बोलती हैं। आप सोच रहे होंगे कि देश और दुनिया के चुने हुए लोगों के सामने अपनी दास्तां बयान करने वाली, ये महिलाएं कौन हैं? उत्सुकता शांत किए देता हूं। पहला बयान है महान सितारवादक पंडित रविशंकर की पुत्री अनुष्का शंकर का। दूसरी थीं तमिलनाडु की मशहूर अभिनेत्री और राजनीतिज्ञ खुशबू। तीसरी, टेलीविजन स्टार और भारतीय जनता पार्टी की राज्यसभा सदस्य स्मृति ईरानी। कहने की जरूरत नहीं कि ये तीनों महिलाएं बेहद नामवर हैं और इनके कद से लाखों नवयुवतियां प्रेरणा ग्रहण करती हैं। उनके ये विचार साबित करते हैं कि अंतत: वे भी हमारी उत्पीड़ित आधी आबादी का हिस्सा हैं। इनके चमकते चेहरों के पीछे निजी दुख-दर्दो से भरी पूरी अंधेरी दुनिया मौजूद है। ‘समिट’ में तीनों ने अपने-अपने तरीके से महिला मुक्ति के उपाय सुझाए और उम्मीद जाहिर की कि मौजूदा वक्त हिन्दुस्तान में महिला क्रांति का है।
इनके भाषण लंबे थे, पर आप इन चंद पंक्तियों से समझ गए होंगे कि हमारी दुनिया में ऐसा बहुत कुछ है, जिसे बदला जाना शेष है। आज 15 दिसंबर है। हम खेद सहित याद कर सकते हैं कि पिछले साल 16 दिसंबर को बलिया की एक बालिका के साथ बलात्कार कर कुछ दरिंदों ने देश की राजधानी को कैसे शर्मसार किया था! उसके बाद दिल्ली और अन्य नगरों में जगह-जगह प्रदर्शन हुए। पिछले 60 सालों में नारी मुक्ति के भाषण तो बहुत हुए, पर ऐसा जागरण नहीं दिखाई पड़ा था। उस अकेली घटना ने जैसे बरसों से आग तलाश रहे तेल के भंडार को चिनगारी दिखा दी। ऐसा कोलाहल उपजा कि इस मुद्दे पर ऊंघती संसद भी उठकर खड़ी हो गई और आनन-फानन में पुराने कानूनों को झाड़-पोंछकर दुरुस्त कर दिया गया। आज उसी का परिणाम है कि खुद को संत कहने वाले पिता-पुत्र और तहलका मचा देने वाले एक संपादक सलाखों के पीछे हैं।
महिला उत्पीड़न के मामले में देश की सबसे आला अदालत के एक पूर्व न्यायाधीश भी सवालों के घेरे में हैं। शायद यह सब ‘निर्भया’ की शहादत का कमाल है, पर अफसोस बदलाव रातोंरात नहीं आते। उन्हें लंबा रास्ता तय करना होता है। यही वजह है कि जब एक केंद्रीय मंत्री ने कहा कि हमें तो लड़कियों से बात करने में डर लगता है, पता नहीं कब जेल जाना पड़ जाए, तो उनके इस बयान की कुछ ही घंटों में इतनी लानत-मलामत हुई कि वह सफाई देने पर मजबूर हो गए। और तो और, एक महत्वपूर्ण कुरसी पर बैठे उनके पुत्र ने ‘ट्विटर’ के जरिये उनसे माफी तक की अपेक्षा कर डाली। इससे पहले समाजवादी पार्टी के एक सांसद ने यह कहकर सबको सकते में डाल दिया था कि कोई भी अधिकारी अब महिला सेक्रेटरी नहीं रखना चाहता। उन्हें फंसा दिए जाने का भय सताता है। इस बयान की भी काफी थू-थू हुई। दुख की बात है कि ये दोनों ही कथन ऐसी मानसिकता के प्रतीक हैं, जो हमारे आसपास फल-फूल रही है। आप किसी भी दफ्तर में जाइए, कुछ लोग कहते मिल जाएंगे कि अब महिलाओं को नौकरी देना खतरे से खाली नहीं है।
ऐसा कहने से पहले उन्हें खुशबू के बयान को याद कर लेना चाहिए कि उन्हें जन्म देनेवाली भी एक औरत थी। मैं यहां जान-बूझकर नारी उत्पीड़न के आंकड़े नहीं दे रहा। आंकड़े हमेशा पूरा सच बयान नहीं करते। मसलन, महिलाओं के साथ होने वाले अशोभनीय व्यवहार की शिकायतों में जो उछाल आया है, उसे नई चेतना का प्रतीक माना जाता है। कुछ पुलिस वाले और उत्साही लोग यह मानकर खुश हो लेते हैं कि अब औरतें अपने साथ हो रहे जुल्मो-सितम को बर्दाश्त नहीं कर रहीं और उत्पीड़कों को सजा दिलवाने के लिए वे आगे आने लगी हैं। यह समस्या का सरलीकरण है। हकीकत इससे काफी जुदा है। अगर राह चलते हर छेड़छाड़ करने वाले के खिलाफ शिकायतें दर्ज की जाएं, तो थानों के रोजनामचे छोटे पड़ जाएंगे। मतलब साफ है कि हमें अपनी जेहनियत को बदलना ही होगा। 21वीं शताब्दी की हमसे यह सबसे अहम मांग है।
रही बात कानूनों की, तो इसमें कोई दो राय नहीं कि उन्हें अगर कारगर तरीके से लागू किया जाए, तो वे लोगों को सिर्फ भयभीत ही नहीं करते, बल्कि जागरूक भी बनाते हैं। दहेज निरोधक कानून इसके उदाहरण हैं। आंकड़े कुछ भी कहें, पर मैं अपने आसपास की दुनिया में महसूस करता हूं कि सदियों से चली आ रही इस बुराई की पकड़ अब हमारे समाज से ढीली पड़ रही है। उम्मीद है कि महिला उत्पीड़न के नए कानून भी आगे ऐसी ही भूमिका अदा करेंगे। ‘निर्भया’ की शहादत की बरसी पर क्यों न हम अपने लिए भी एक संकल्प करें कि अब अपने जीते जी दूसरी ‘निर्भया’ नहीं होने देंगे!
‘मैं जब पैदा हुई, तो अस्पताल में मुझे देखने के लिए पिता नहीं आए, क्योंकि मैं कन्या थी और लड़की का पैदा होना अच्छा नहीं माना जाता था। यह तब हुआ, जब मैं तीन भाइयों के बाद पैदा हुई थी। इस देश में महिलाओं के लिए सम्मान क्यों नहीं है? उन्हें उपेक्षा की नजरों से क्यों देखा जाता है? वे सिर्फ भोग की वस्तु क्यों समझी जाती हैं? पुरुष का मन होता है, तो कभी उन्हें लक्ष्मी, कभी सरस्वती और कभी शक्ति का अवतार बता देता है, पर मुझे अपनी पीड़ा से ज्यादा इस बात पर फा है कि मैं ही हूं, जो आदमियों को जनती हूं।’ ‘मेरी 23 साल की बेटी हर रोज अंधेरी से चर्चगेट स्टेशन के लिए लोकल पकड़ती है। वह एक लॉ इंटर्न है। कानून की पढ़ाई करने वाली मेरी यह बच्ची जब घर से निकलती है, तो अपने सीने को बैग से ढके रहती है।
ऐसा लगता है, जैसे वह हर रोज दृढ़ निश्चय के साथ रवाना होती है- उन लोगों से जूझने के लिए, जो मुं
raofamilysirsa |
कहने की जरूरत नहीं कि हमारे घरों की महिलाएं भी ऐसा ही सोचती और बोलती हैं। आप सोच रहे होंगे कि देश और दुनिया के चुने हुए लोगों के सामने अपनी दास्तां बयान करने वाली, ये महिलाएं कौन हैं? उत्सुकता शांत किए देता हूं। पहला बयान है महान सितारवादक पंडित रविशंकर की पुत्री अनुष्का शंकर का। दूसरी थीं तमिलनाडु की मशहूर अभिनेत्री और राजनीतिज्ञ खुशबू। तीसरी, टेलीविजन स्टार और भारतीय जनता पार्टी की राज्यसभा सदस्य स्मृति ईरानी। कहने की जरूरत नहीं कि ये तीनों महिलाएं बेहद नामवर हैं और इनके कद से लाखों नवयुवतियां प्रेरणा ग्रहण करती हैं। उनके ये विचार साबित करते हैं कि अंतत: वे भी हमारी उत्पीड़ित आधी आबादी का हिस्सा हैं। इनके चमकते चेहरों के पीछे निजी दुख-दर्दो से भरी पूरी अंधेरी दुनिया मौजूद है। ‘समिट’ में तीनों ने अपने-अपने तरीके से महिला मुक्ति के उपाय सुझाए और उम्मीद जाहिर की कि मौजूदा वक्त हिन्दुस्तान में महिला क्रांति का है।
इनके भाषण लंबे थे, पर आप इन चंद पंक्तियों से समझ गए होंगे कि हमारी दुनिया में ऐसा बहुत कुछ है, जिसे बदला जाना शेष है। आज 15 दिसंबर है। हम खेद सहित याद कर सकते हैं कि पिछले साल 16 दिसंबर को बलिया की एक बालिका के साथ बलात्कार कर कुछ दरिंदों ने देश की राजधानी को कैसे शर्मसार किया था! उसके बाद दिल्ली और अन्य नगरों में जगह-जगह प्रदर्शन हुए। पिछले 60 सालों में नारी मुक्ति के भाषण तो बहुत हुए, पर ऐसा जागरण नहीं दिखाई पड़ा था। उस अकेली घटना ने जैसे बरसों से आग तलाश रहे तेल के भंडार को चिनगारी दिखा दी। ऐसा कोलाहल उपजा कि इस मुद्दे पर ऊंघती संसद भी उठकर खड़ी हो गई और आनन-फानन में पुराने कानूनों को झाड़-पोंछकर दुरुस्त कर दिया गया। आज उसी का परिणाम है कि खुद को संत कहने वाले पिता-पुत्र और तहलका मचा देने वाले एक संपादक सलाखों के पीछे हैं।
महिला उत्पीड़न के मामले में देश की सबसे आला अदालत के एक पूर्व न्यायाधीश भी सवालों के घेरे में हैं। शायद यह सब ‘निर्भया’ की शहादत का कमाल है, पर अफसोस बदलाव रातोंरात नहीं आते। उन्हें लंबा रास्ता तय करना होता है। यही वजह है कि जब एक केंद्रीय मंत्री ने कहा कि हमें तो लड़कियों से बात करने में डर लगता है, पता नहीं कब जेल जाना पड़ जाए, तो उनके इस बयान की कुछ ही घंटों में इतनी लानत-मलामत हुई कि वह सफाई देने पर मजबूर हो गए। और तो और, एक महत्वपूर्ण कुरसी पर बैठे उनके पुत्र ने ‘ट्विटर’ के जरिये उनसे माफी तक की अपेक्षा कर डाली। इससे पहले समाजवादी पार्टी के एक सांसद ने यह कहकर सबको सकते में डाल दिया था कि कोई भी अधिकारी अब महिला सेक्रेटरी नहीं रखना चाहता। उन्हें फंसा दिए जाने का भय सताता है। इस बयान की भी काफी थू-थू हुई। दुख की बात है कि ये दोनों ही कथन ऐसी मानसिकता के प्रतीक हैं, जो हमारे आसपास फल-फूल रही है। आप किसी भी दफ्तर में जाइए, कुछ लोग कहते मिल जाएंगे कि अब महिलाओं को नौकरी देना खतरे से खाली नहीं है।
ऐसा कहने से पहले उन्हें खुशबू के बयान को याद कर लेना चाहिए कि उन्हें जन्म देनेवाली भी एक औरत थी। मैं यहां जान-बूझकर नारी उत्पीड़न के आंकड़े नहीं दे रहा। आंकड़े हमेशा पूरा सच बयान नहीं करते। मसलन, महिलाओं के साथ होने वाले अशोभनीय व्यवहार की शिकायतों में जो उछाल आया है, उसे नई चेतना का प्रतीक माना जाता है। कुछ पुलिस वाले और उत्साही लोग यह मानकर खुश हो लेते हैं कि अब औरतें अपने साथ हो रहे जुल्मो-सितम को बर्दाश्त नहीं कर रहीं और उत्पीड़कों को सजा दिलवाने के लिए वे आगे आने लगी हैं। यह समस्या का सरलीकरण है। हकीकत इससे काफी जुदा है। अगर राह चलते हर छेड़छाड़ करने वाले के खिलाफ शिकायतें दर्ज की जाएं, तो थानों के रोजनामचे छोटे पड़ जाएंगे। मतलब साफ है कि हमें अपनी जेहनियत को बदलना ही होगा। 21वीं शताब्दी की हमसे यह सबसे अहम मांग है।
रही बात कानूनों की, तो इसमें कोई दो राय नहीं कि उन्हें अगर कारगर तरीके से लागू किया जाए, तो वे लोगों को सिर्फ भयभीत ही नहीं करते, बल्कि जागरूक भी बनाते हैं। दहेज निरोधक कानून इसके उदाहरण हैं। आंकड़े कुछ भी कहें, पर मैं अपने आसपास की दुनिया में महसूस करता हूं कि सदियों से चली आ रही इस बुराई की पकड़ अब हमारे समाज से ढीली पड़ रही है। उम्मीद है कि महिला उत्पीड़न के नए कानून भी आगे ऐसी ही भूमिका अदा करेंगे। ‘निर्भया’ की शहादत की बरसी पर क्यों न हम अपने लिए भी एक संकल्प करें कि अब अपने जीते जी दूसरी ‘निर्भया’ नहीं होने देंगे!
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