भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में आठ दिसंबर, 2013 को क्या कुछ खास वजहों
से याद किया जाएगा? आज यानी आठ दिसंबर को चार राज्यों में चुनावी फैसले आने
हैं। जिस तरह से पिछले दिनों मतदान केंद्रों पर अभूतपूर्व भीड़ उमड़ी,
उससे साफ है कि देश का आम आदमी अब राजनीति के प्रति उदासीन नहीं रहा, जितना
माना जाता रहा है। संयोगवश यह बताने में हर्ज
नहीं है कि 1952 में हमारी नवजात आजादी ने पहली बार ‘आम आदमी का उत्सव’
मनाया था। 61 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं ने इसमें हिस्सेदारी की थी। आप 62
साल पुराने भारत की कल्पना करें। शताब्दियों की गुलामी से उकताए हुए लोग
जैसे अपने हाथों से लोकतंत्र की ताजपोशी करना चाहते थे। उन दिनों पोलिंग
बूथ इतने पास नहीं हुआ करते थे और न यातायात के साधन मौजूद थे। गांवों में
तो दूर तक पैदल चलना पड़ता था। फिर मीडिया का ऐसा विस्तार भी नहीं था, जो
लोगों को वोट डालने के लिए प्रेरित करता। इसके बावजूद कश्मीर से
कन्याकुमारी तक लोग उमड़ पड़े थे। बाद के वर्षों में यह प्रक्रिया ढीली
पड़ती गई। हालात इतने बुरे हो गए कि 70 के दशक की शुरुआत में वोटिंग का
प्रतिशत 55 प्रतिशत तक आ गया। ऐसा स्वार्थी नेताओं की मनमानी और जनता के
साथ लगातार हो रहे छल की वजह से हुआ, पर गजब है हमारा देश! चलते-चलते
लड़खड़ाता है, संभलता है और फिर चल उठता है। पांच राज्यों में हुए चुनावों
में वोटिंग के रिकॉर्डतोड़ आंकड़े इसके उदाहरण हैं।
अब आते हैं आज आने वाले चुनाव परिणामों पर। अन्ना के आंदोलन ने पूरे देश के सामने उद्घाटित किया था कि लोग मौजूदा व्यवस्था से नाखुश हैं। उनमें भयंकर बेचैनी है। यही वजह थी कि रालेगण सिद्धि के बुजुर्ग के आह्वान पर हजारों लोग रामलीला मैदान में जा डटे। बाद में बलिया की एक युवती के साथ हुए बलात्कार से इस असंतोष को एक बार फिर राजधानी की सड़कों पर आग की तरह फैलते हुए देखा गया। परिणाम? अन्ना की वजह से संसद का सत्र बढ़ाना पड़ा, पर राजनेता अपने वायदे से मुकर गए। बलात्कार के बाद उपजा आंदोलन विशुद्ध रूप से सामाजिक था, इसीलिए सरकार हिल गई और संसद ने यौन उत्पीड़न से संबंधित कानूनों को इतना बदल दिया कि दुष्कर्मी इससे थर्राने लग जाएं। आसाराम बापू, नारायण साईं, तरुण तेजपाल और देहरादून के एक अपर सचिव की गिरफ्तारी साबित करती है कि ‘निर्भया’ ने जान गंवाकर भी आने वाली नस्लों को निर्भय रहने का मंत्र दे दिया। यह किस्सा बताने के पीछे मेरा मकसद सिर्फ इतना था कि मौजूदा चुनाव परिवर्तन की इस अनोखी कामना के उपजने के बाद हुए, इसीलिए वोटरों के मन में द्वंद्व था। शीला दीक्षित 15 साल से, शिवराज सिंह और रमन सिंह एक दशक से और अशोक गहलोत पिछले पांच साल से हुकूमत में हैं। अपने हिसाब से सबने विकास के काम किए हैं और इसी आधार पर उनके पास फिर से सत्ता हासिल करने के तर्क हैं।
इसके बरक्स कांग्रेस और भाजपा, जहां जो भी विपक्ष में है, तोहमतों की बारिश करती रही हैं। कौन पार्टी अपने तर्क मनवाने में कामयाब रही और कौन नाकामयाब, आज मालूम पड़ जाएगा। एक और मुद्दा है- केंद्र सरकार का कामकाज। मनमोहन सिंह ने साढ़े नौ साल पहले जब सत्ता संभाली थी, तब देश आर्थिक प्रगति के राजमार्ग पर सरपट दौड़ चला था। जनता ने उन्हें दोबारा चुनकर भेजा, पर उनका दूसरा कार्यकाल पहले की तरह चमकीला साबित नहीं हुआ। इसकी तमाम वजहें हैं। कुछ सहयोगियों का भ्रष्टाचार, तो कुछ अपनों की भेड़चाल। कुछ दुनिया के बिगड़ते हालात, तो कुछ देश के अंदर डगमगाती स्थितियां। इन सबसे ऊपर पीढ़ी परिवर्तन की छटपटाहट। कांग्रेस पहले भी इस तरह के बदलाव देख चुकी है। इंदिरा गांधी ने जब सत्ता संभाली थी, तब उन्होंने सत्ता और संगठन का द्वैत खत्म कर दिया था। राजीव गांधी के वक्त में यह जारी रहा। सोनिया गांधी ने पुराने फॉर्मूले को फिर से जिंदा किया। वह पार्टी की अध्यक्ष हैं और मनमोहन सिंह कांग्रेस के प्रतिनिधि के तौर पर हुकूमत करते हैं। कांग्रेस के अंदर ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो यह कहते हैं कि यह फॉर्मूला बदले जाने की जरूरत पैदा हो गई है। इसी बहस के बीच राहुल गांधी और उनकी टीम पूरे जोश-खरोश के साथ संगठन को नया कलेवर देने में जुटी है।
मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी भी ऐसे ही दौर से गुजर रही है। अटल-आडवाणी का दशकों पुराना युग समाप्त हो गया है। गुजरात की सत्ता और अपनी कामयाबी के दम पर नरेंद्र मोदी ने संगठन को अपने आगे झुकने पर विवश कर दिया। आडवाणी जैसे शीर्ष पुरुष के विरोध के बावजूद वह महीनों पहले खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करवाने में कामयाब रहे। अब वह पूरे देश का तूफानी दौरा कर रहे हैं। उनकी सभाओं में जमकर भीड़ उमड़ रही है। उनकी व्यंग्यात्मक शैली और वजनदार शब्दों पर तालियां बजती हैं। क्या ये भीड़ मतदाता के मूड का कोई संकेत है? आज के परिणाम साबित कर देंगे कि जनता कांग्रेस और भाजपा में से किसके परिवर्तन को बेहतर मान रही है।
एक और मुद्दे की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं। दिल्ली में अरविंद
केजरीवाल ‘आम आदमी पार्टी’ के जरिये मैदान में हैं। आजाद भारत के इतिहास
में कोई भी सियासी दल इतनी जल्दी खुद को खड़ा नहीं कर पाया। ‘आप’ ने दिल्ली
के चुनाव में दमदार मौजूदगी दिखाई है। क्या वह इतनी सीटें जीत पाएगी कि
कहा जा सके कि लोग परंपरागत पार्टियों से ऊब चुके हैं और अब इस सियासी
आंदोलन को पूरे देश में फैलाना है?
कुछ घंटे इंतजार कीजिए, फैसला आ जाएगा। अगर ऐसा होता है, तो यकीनन इसे एक बड़े बदलाव का आगाज मानना चाहिए। पांच राज्यों के इन विधानसभा चुनावों को 2014 में होने वाले ‘केंद्रीय सत्ता संग्राम’ का रिहर्सल माना जा रहा है। ऐसा है भी। न होता, तो सोनिया गांधी, नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी उन राज्यों के दौरे न कर रहे होते, जहां अभी चुनाव नहीं हो रहे हैं। पर जैसा कि ऊपर निवेदन किया गया है, इन चुनावों का अपना मुकम्मल अस्तित्व है और इन्हें हमेशा याद रखे जाने की तमाम वजहें हैं। हमें भूलना नहीं चाहिए कि विधानसभा के तमाम चुनावों ने इस देश के मौजूदा स्वरूप को गढ़ने और लोकतंत्र को मजबूत बनाने में भूमिका अदा की है। 1967 में नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं। इसने मौजूदा भारतीय राजनीति के स्वरूप को रचने और गढ़ने में बड़ी भूमिका अदा की। 1986 में ललडेंगा ने मिजोरम के चुनावी रण में उतरने का फैसला किया था। इसने पूर्वोत्तर में शांति की बहाली में महत्वपूर्ण योगदान अदा किया।
अगर नरबहादुर भंडारी सिक्किम विधानसभा में चुनाव के लिए पहल नहीं करते, तो श्रीमती गांधी के लिए यह राज्य वैसा ही नासूर साबित होता, जैसे चीन के लिए तिब्बत। 1985 के पंजाब विधानसभा चुनावों में भारत ने समूची दुनिया को बता दिया था कि हमारा यह सीमा प्रांत एके-47 लहराते खाड़कुओं का नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक आचार-व्यवहार का प्रतिनिधि है। जम्मू-कश्मीर विधानसभा का हर चुनाव अलगाववादियों के मुंह पर तमाचा होता है। ऐसे और भी उदाहरण हैं, जो यह साबित करते हैं कि दिल्ली की दशा-दिशा अक्सर प्रदेशों से तय होती है। इसीलिए उम्मीद कीजिए। आज जो फैसले जगजाहिर होंगे, उनकी अनुगूंज बरसों-बरस तक भारतीय लोकशाही के गलियारों में सुनी जाएगी।
अब आते हैं आज आने वाले चुनाव परिणामों पर। अन्ना के आंदोलन ने पूरे देश के सामने उद्घाटित किया था कि लोग मौजूदा व्यवस्था से नाखुश हैं। उनमें भयंकर बेचैनी है। यही वजह थी कि रालेगण सिद्धि के बुजुर्ग के आह्वान पर हजारों लोग रामलीला मैदान में जा डटे। बाद में बलिया की एक युवती के साथ हुए बलात्कार से इस असंतोष को एक बार फिर राजधानी की सड़कों पर आग की तरह फैलते हुए देखा गया। परिणाम? अन्ना की वजह से संसद का सत्र बढ़ाना पड़ा, पर राजनेता अपने वायदे से मुकर गए। बलात्कार के बाद उपजा आंदोलन विशुद्ध रूप से सामाजिक था, इसीलिए सरकार हिल गई और संसद ने यौन उत्पीड़न से संबंधित कानूनों को इतना बदल दिया कि दुष्कर्मी इससे थर्राने लग जाएं। आसाराम बापू, नारायण साईं, तरुण तेजपाल और देहरादून के एक अपर सचिव की गिरफ्तारी साबित करती है कि ‘निर्भया’ ने जान गंवाकर भी आने वाली नस्लों को निर्भय रहने का मंत्र दे दिया। यह किस्सा बताने के पीछे मेरा मकसद सिर्फ इतना था कि मौजूदा चुनाव परिवर्तन की इस अनोखी कामना के उपजने के बाद हुए, इसीलिए वोटरों के मन में द्वंद्व था। शीला दीक्षित 15 साल से, शिवराज सिंह और रमन सिंह एक दशक से और अशोक गहलोत पिछले पांच साल से हुकूमत में हैं। अपने हिसाब से सबने विकास के काम किए हैं और इसी आधार पर उनके पास फिर से सत्ता हासिल करने के तर्क हैं।
इसके बरक्स कांग्रेस और भाजपा, जहां जो भी विपक्ष में है, तोहमतों की बारिश करती रही हैं। कौन पार्टी अपने तर्क मनवाने में कामयाब रही और कौन नाकामयाब, आज मालूम पड़ जाएगा। एक और मुद्दा है- केंद्र सरकार का कामकाज। मनमोहन सिंह ने साढ़े नौ साल पहले जब सत्ता संभाली थी, तब देश आर्थिक प्रगति के राजमार्ग पर सरपट दौड़ चला था। जनता ने उन्हें दोबारा चुनकर भेजा, पर उनका दूसरा कार्यकाल पहले की तरह चमकीला साबित नहीं हुआ। इसकी तमाम वजहें हैं। कुछ सहयोगियों का भ्रष्टाचार, तो कुछ अपनों की भेड़चाल। कुछ दुनिया के बिगड़ते हालात, तो कुछ देश के अंदर डगमगाती स्थितियां। इन सबसे ऊपर पीढ़ी परिवर्तन की छटपटाहट। कांग्रेस पहले भी इस तरह के बदलाव देख चुकी है। इंदिरा गांधी ने जब सत्ता संभाली थी, तब उन्होंने सत्ता और संगठन का द्वैत खत्म कर दिया था। राजीव गांधी के वक्त में यह जारी रहा। सोनिया गांधी ने पुराने फॉर्मूले को फिर से जिंदा किया। वह पार्टी की अध्यक्ष हैं और मनमोहन सिंह कांग्रेस के प्रतिनिधि के तौर पर हुकूमत करते हैं। कांग्रेस के अंदर ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो यह कहते हैं कि यह फॉर्मूला बदले जाने की जरूरत पैदा हो गई है। इसी बहस के बीच राहुल गांधी और उनकी टीम पूरे जोश-खरोश के साथ संगठन को नया कलेवर देने में जुटी है।
मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी भी ऐसे ही दौर से गुजर रही है। अटल-आडवाणी का दशकों पुराना युग समाप्त हो गया है। गुजरात की सत्ता और अपनी कामयाबी के दम पर नरेंद्र मोदी ने संगठन को अपने आगे झुकने पर विवश कर दिया। आडवाणी जैसे शीर्ष पुरुष के विरोध के बावजूद वह महीनों पहले खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करवाने में कामयाब रहे। अब वह पूरे देश का तूफानी दौरा कर रहे हैं। उनकी सभाओं में जमकर भीड़ उमड़ रही है। उनकी व्यंग्यात्मक शैली और वजनदार शब्दों पर तालियां बजती हैं। क्या ये भीड़ मतदाता के मूड का कोई संकेत है? आज के परिणाम साबित कर देंगे कि जनता कांग्रेस और भाजपा में से किसके परिवर्तन को बेहतर मान रही है।
raofamilysrisa |
कुछ घंटे इंतजार कीजिए, फैसला आ जाएगा। अगर ऐसा होता है, तो यकीनन इसे एक बड़े बदलाव का आगाज मानना चाहिए। पांच राज्यों के इन विधानसभा चुनावों को 2014 में होने वाले ‘केंद्रीय सत्ता संग्राम’ का रिहर्सल माना जा रहा है। ऐसा है भी। न होता, तो सोनिया गांधी, नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी उन राज्यों के दौरे न कर रहे होते, जहां अभी चुनाव नहीं हो रहे हैं। पर जैसा कि ऊपर निवेदन किया गया है, इन चुनावों का अपना मुकम्मल अस्तित्व है और इन्हें हमेशा याद रखे जाने की तमाम वजहें हैं। हमें भूलना नहीं चाहिए कि विधानसभा के तमाम चुनावों ने इस देश के मौजूदा स्वरूप को गढ़ने और लोकतंत्र को मजबूत बनाने में भूमिका अदा की है। 1967 में नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं। इसने मौजूदा भारतीय राजनीति के स्वरूप को रचने और गढ़ने में बड़ी भूमिका अदा की। 1986 में ललडेंगा ने मिजोरम के चुनावी रण में उतरने का फैसला किया था। इसने पूर्वोत्तर में शांति की बहाली में महत्वपूर्ण योगदान अदा किया।
अगर नरबहादुर भंडारी सिक्किम विधानसभा में चुनाव के लिए पहल नहीं करते, तो श्रीमती गांधी के लिए यह राज्य वैसा ही नासूर साबित होता, जैसे चीन के लिए तिब्बत। 1985 के पंजाब विधानसभा चुनावों में भारत ने समूची दुनिया को बता दिया था कि हमारा यह सीमा प्रांत एके-47 लहराते खाड़कुओं का नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक आचार-व्यवहार का प्रतिनिधि है। जम्मू-कश्मीर विधानसभा का हर चुनाव अलगाववादियों के मुंह पर तमाचा होता है। ऐसे और भी उदाहरण हैं, जो यह साबित करते हैं कि दिल्ली की दशा-दिशा अक्सर प्रदेशों से तय होती है। इसीलिए उम्मीद कीजिए। आज जो फैसले जगजाहिर होंगे, उनकी अनुगूंज बरसों-बरस तक भारतीय लोकशाही के गलियारों में सुनी जाएगी।
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