Krishanarao |
108 मन्दिरों की नगरी खेतड़ी सदैव से ही महान विभूतियों की कार्यस्थली के रूप में जानी जाती रही है। चारों तरफ फैले खेतड़ी के यश की चर्चा सुनकर ही आक्रमणकारी महमूद गजनवी ने अपने भारत पर किए गए सत्रह आक्रमणों में से एक आक्रमण खेतड़ी पर भी किया था, लेकिन उसके उपरान्त भी खेतड़ी की शान में कोई कमी नहीं आयी। खेतड़ी नरेश अजीत सिंह धार्मिक और आध्यात्मिक प्रवृति वाले शासक थे। उन्होंने माउन्ट आबू में एक नया महल खरीदा था, जिसे उन्होंने खेतड़ी महल नाम दिया था। गर्मी में राजा उसी महल में ठहरे हुये थे। उसी दौरान चार जून 1891 को उनकी युवा संन्यासी विवेकानंद से पहली बार मुलाकात हुई। इस मुलाकात से वह उस युवा संन्यासी से इतने प्रभावित हुए कि संन्यासी को अपना गुरु बना लिया तथा अपने साथ खेतड़ी चलने का आग्रह किया, जिसे स्वामीजी ठुकरा नहीं सके। स्वामी विवेकानंद सात अगस्त 1891 को पहली बार खेतड़ी आये। खेतड़ी में वह 27 अक्टूबर 1891 तक रहे। यह स्वामी विवेकानंद का एक स्थान पर बड़ा ठहराव था। खेतड़ी प्रवास के दौरान स्वामीजी अजीत सिंह से अध्यात्म पर चर्चा करते थे। उन्होंने अजीत सिंह को उदार और विशाल बनाने के लिए आधुनिक विज्ञान के महत्व को समझाया। खेतड़ी में ही स्वामी विवेकानंद ने राजपण्डित नारायणदास शास्त्री के सहयोग से पाणिनी का और पतंजलि का का अध्ययन किया। स्वामीजी ने व्याकरणाचार्य और पाण्डित्य के लिए विख्यात नारायणदास शास्त्री को लिखे पत्रों में मेरे गुरु कहकर सम्बोधित किया है। अमेरिका जाने से पूर्व अजीत सिंह के निमंत्रण पर 21 अप्रैल 1893 को स्वामीजी दूसरी बार खेतड़ी आये। उन्होंने 10 मई 1893 तक खेतड़ी में प्रवास किया। इसी दौरान एक दिन अजीत सिंह स्वामीजी फतेहविलास महल में बैठे शास्त्र चर्चा कर रहे थे। तभी नर्तकियों ने वहां आकर गायन वादन का अनुरोध किया। इस पर संन्यासी होने के नाते स्वामीजी उसमें भाग नहीं लेना चाहते थे और वह उठकर जाने लगे तो नर्तकियों की दल नायिका मैनाबाई ने आग्रह किया कि स्वामीजी आप भी विराजें, मैं यहां भजन सुनाऊंगी इस पर स्वामी जी बैठ गये। नर्तकी मैनाबाई ने महाकवि सूरदास रचित प्रसिद्ध भजन प्रभू मोरे अवगुण चित न धरो। समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो, सुनाया तो स्वामी जी की आंखों में पश्चाताप मिश्रित अश्रु धारा बह निकली और उन्होंने उस पतिता नारी को ज्ञानदायिनी मां कहकर सम्बोधित किया तथा कहा कि तुमने आज मेरी आंखे खोल दी हैं। इस भजन को सुनकर ही स्वामीजी सन्यासोन्मुखी हुए और जीवन पर्यन्त सद्भाव से जुड़े रहने का व्रत धारण किया। दस मई 1893 को उन्होंने 28 वर्ष की अल्पायु में खेतड़ी से अमेरिका जाने के लिये प्रस्थान किया। अजीत सिंह के आर्थिक सहयोग से ही स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में वेदान्त की पताका फहराकर भारत को विश्व धर्मगुरु का सम्मान दिलाया। स्वामीजी ने जहाज का साधारण दर्जे का टिकट खरीदा था, जिसे खेतड़ी नरेश ने वापस करवाकर उच्च दर्जे का टिकट दिलवाया। अमेरिका में स्वामीजी का धन खो गया। इस बात का पता जब अजीत सिंह को लगा तो उन्होंने टेलीग्राफ से वहीं तत्काल 150 डॉलर भिजवाये।
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