Monday, 8 July 2013

कौन महारथी जुटा पाएगा कितने साथी

बात ज्यादा नहीं सात  साल पुरानी है। इत्र व्यापारी से नेता बने बदरुद्दीन अजमल की लगातार मिलती राजनीतिक चुनौती को लेकर असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने सार्वजनिक रूप से कहा था: 'अजमल कौन है?Ó मुंबई में अपने खुशबू वाले कारोबार की बहार बिखेर चुके अजमल तब राजनीतिक ताकत हासिल करने के लिए अपने सूबे में लौटे थे।



उन्होंने असम यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एयूडीएफ) का गठन किया और उसके बाद से वह लगातार कांग्रेस के मतों में सेंध लगाकर उसे परेशान करते रहे। खासतौर से मुस्लिम अल्पसंख्यकों वाले चुनाव क्षेत्रों में उनका खास जलवा देखने को मिला। मुसलमानों में व्यापक आधार के चलते अजमल ताकतवर होते गए।
आज वही अजमल हैं और वही कांग्रेस, जो 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी तस्वीर बेहतर करने के लिए उनसे गलबहियां बढ़ाने की कोशिशों में जुटी है। कांग्रेस का मानना है कि अगर उसे 2014 में फिर से सत्ता का स्वाद चखना है तो उसे हर दांव आजमाना होगा और ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने साथ लाना होगा।
हालांकि असम में लोकसभा की केवल 14 सीटें ही हैं लेकिन मौजूदा हालात का अंदाजा कांग्रेस के एक वरिष्ठï नेता के इस बयान से मिल जाता है, 'फिलहाल हर एक सीट महत्त्वपूर्ण है।Ó कुल मिलाकर कहानी यही है कि चुनाव से पहले गठबंधन के सहयोगियों की संख्या बढ़ाने और अपने मतदाताओं को आश्वस्त करने का खेल शुरू हो चुका है।
ऐसा नहीं कि दोस्ती की पींगे बढ़ाने की कांगे्रसी कोशिशें केवल इस पर्वतीय राज्य तक ही सीमित हैं। कुछ दिन पहले ही कांग्रेस ने झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के साथ जुगलबंदी शुरू की है और राज्य में झामुमो नेता हेमंत सोरेन की अगुआई में सरकार बनाने के लिए समर्थन भी देने जा रही है। यहां भी देश की सबसे पुरानी पार्टी की नजर लोकसभा सीटों पर है। झारखंड में भी लोकसभा की 14 सीटें हैं, जिनमें समझौते के तहत 10 पर कांग्रेस और 4 पर झामुमो चुनाव लड़ेगी। इस गठबंधन का दायरा दूसरे कुछ राज्यों तक भी है, जहां झामुमो एकाध सीट पर अपना प्रभाव रखती है।
कहा जा रहा है कि कांगे्रस तेलंगाना राष्टï्र समिति (टीआरएस) पर भी डोरे डाल रही है और उसके साथ अनधिकारिक बातचीत भी चल रही है। हालांकि टीआरएस की हालत बेहद पतली है और हाल में तेलंगाना क्षेत्र में हुए उपचुनाव में पार्टी की दुर्गति भी हुई है, फिर भी कांग्रेस उसे साथ लाने में अपना फायदा ही समझ रही है। चुनाव से पहले अपनी संभावनाएं मजबूत करने में केवल कांग्रेस ही आगे नहीं है।
दूसरी पार्टियां भी अपना आधार मजबूत करने में जुटी हुई हैं। हाल में ही बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने लखनऊ में रैली कर ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिश की। इस रैली में मुस्लिम मतदाताओं को आश्वस्त करते हुए उन्होंने कहा कि वह कभी प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी का समर्थन नहीं करेंगी।
बिहार में भी सियासी समीकरण बेहद तेजी से बदले हैं और उनमें जल्द ही और पेच देखने को मिल सकते हैं। 15 जुलाई को रांची उच्च न्यायालय दो दशक पुराने चारा घोटाले में अपना फैसला सुनाने जा रहा है। अगर राष्टï्रीय जनता दल (राजद) के अध्यक्ष और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद दोषी ठहराए जाते है और उन्हें जेल होती है, तब उनकी मौजूदा सहयोगी कांग्रेस के साथ उनके विरोधी जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के रिश्तों पर सबकी नजर रहेगी।
तमिलनाडु में अभिनेता विजयकांत की एमडीएमके का प्रदर्शन 2011 के विधानसभा चुनावों में बेहद खराब रहा था। मगर यही वह पार्टी है जिसकी वजह से कांग्रेस के एक बड़े तबके ने भ्रष्टïाचार के आरोप झेल रही द्रमुक से पीछा छुड़ाने का फैसला किया। फिर भी द्रमुक और कांग्रेस के बीच बीते दौर में बेहतर रहे रिश्तों के बावजूद आम धारणा यही है कि ये दोनों पार्टियां एक दूसरे का समर्थन नहीं करेंगी।
विश्लेषकों का यही कहना है कि नए गठबंधन सहयोगी बनाने की जद्दोजहद में कांग्रेस शुरुआती दांव चलकर फायदे की स्थिति में है, जबकि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपनी अंतर्कलह से उबरने में ही जुटी है। फिलहाल भाजपा की अगुआई वाले राष्टï्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में केवल अकाली दल और शिवसेना जैसे सहयोगी दल बचे हैं जबकि उसे अन्नाद्रमुक और असम गण परिषद का समर्थन मिलने की उम्मीद है। मगर उसके सहयोगियों की फेहरिस्त में इससे ज्यादा नाम जुडऩे के आसार नहीं हैं। फिलहाल तो दोनों खेमे इस खेल में पूरी जी-जान से जुटे हैं लेकिन अभी कुछ खिलाड़ी ऐसे भी हैं, जो अपने पत्ते आखिरी मोड़ पर ही खोलेंगे।

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