भागवत के अंक 324 में आपने पढ़ा....हम तन को स्वस्थ रखना चाहते हैं-धन को कमाना चाहते हैं। दैनिक जीवन की आवश्यकता पूरी करने के लिए पराक्रमी होना चाहते हैं, बन्धु-बान्धवों के साथ मानसिक शान्ति चाहते हैं मातृवत-बुद्धि चाहते हैं, संतान सुख के साथ-साथ विग्रह विहीन जीवन जीने की आनन्द की चाह रहती है, स्त्री लाभ की सुखद कामना रहती है। इन सबके लिए पर्याप्त आयु चाहिए, भाग्य के बिना आयु कैसी और बिना पुण्य कार्य के भाग्य नहीं, पिता तुल्य कर्म करना पड़ता है तब कर्म प्रधान होता है, सद्कर्म से सुलभ-सुलाभ से सुफल है , आनन्द, मोह आदि ये जीवन के बारह पक्ष हैं जो भौतिकता से अति भौतिक या आध्यात्मिकता की ओर ले जाते हैं अब आगे....
उद्धव! गर्भाधान, गर्भवृद्धि, जन्म, बाल्यावस्था, कुमारावस्था, जवानी, अधेड़ अवस्था, बुढ़ापा और मृत्यु ये नौ अवस्थाएं शरीर की ही हैं। जैसे जौ-गेहूं आदि की फसल बोने पर उग आती है और पक जाने पर काट दी जाती है, किन्तु जो पुरुष उनके उगने और काटने का जानने वाला साक्षी है, वह उनसे सर्वथा पृथक है, वैसे ही जो शरीर और उसकी अवस्थाओं का साक्षी है, वह शरीर से सर्वथा पृथक है। अज्ञानी पुरुष इस प्रकार प्रकृति और शरीर से आत्मा का विवेचन नहीं करते। वे उसे उनसे तत्वत: अलग अनुभव नहीं करते और विषय भोग में सच्चा सुख मानने लगते हैं तथा उसी में मोहित हो जाते हैं। इसी से उन्हें जन्म-मृत्युरूप संसार में भटकना पड़ता है।
जब मनष्य किसी को नाचते-गाते देखता है, तब वह स्वयं भी उसका अनुकरण करने- तान तोडऩे लगता है। वैसे ही जब जीव बुद्धि के गुणों को देखता है, तब स्वयं निष्क्रिय होने पर भी उसका अनुकरण करने के लिए बाध्य हो जाता है।भाई उद्धव! इसलिए इन दुष्ट (कभी तृप्त न होने वाली) इन्द्रियों से विषयों को मत भोगो। आत्मा के अज्ञान से प्रतीत होने वाला सांसारिक भेदभाव भ्रममूलक ही है, ऐसा समझो।
असाधु पुरुष गर्दन पकड़कर बाहर निकाल दें, वाणी द्वारा अपमान करें, उपहास करें, निन्दा करें, मारें-पीटें, बांधें, आजीविका छीन लें, ऊपर थूक दे, लघुशंका कर दें अथवा तरह-तरह से विचलित करें, निष्ठा से डिगाने की चेष्टा करें, उनके किसी भी उपद्रव से क्षुब्ध न होना चाहिए, क्योंकि वे तो बेचारे अज्ञानी हैं, उन्हें परमार्थ का तो पता ही नहीं है। अत: जो अपने कल्याण का इच्छुक है, उसे सभी कठिनाइयों से अपनी विवेकबुद्धि द्वारा ही किसी बाह्य साधन से नहीं, अपने को बचा लेना चाहिए। वस्तुत: आत्मदृष्टि ही समस्त विपत्तियों से बचने का एकमात्र साधन है।
यहां भगवान शरीर पर बड़ा सुंदर बोले हैं। आज शरीर पर टिकने का ही समय है। लोग देह से ही शुरू होते हैं और उसी पर अंत करते हैं। थोड़ा गहरा जाकर हम भी समझें।भगवान कृष्ण को 5085 वर्ष से अधिक वर्ष बीत गए। कौरव व पाण्डव कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिए तत्पर थे। एक जाति और एक वंश के वैमनस्य का दुष्परिणाम सारा समाज भुगतने जा रहा है। ऐसे में अर्जुन को दिया गया ज्ञानोपदेश आज भी हमारे लिए वह दीप-स्तम्भ है, जिसके कारण में हम भटककर चट्टानों से अपने जीवन रूपी जहाज को टकराकर नष्ट होने से बचा सकते हैं।
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