समय और जीवन गतिशील हैं, अपनी गति से आगे बढ़ते जाते हैं। घावों को भर देते हैं और यादों को कुछ पीछे धकेल देते हैं। पर कभी-कभी वो लम्हे जेहन में ताजा हो जाती हैं और दिल में एक कसक और आंखों में आंसू की बूंदों का बहाना बन जाती हैं। 1965 की जंग के सिर्फ 6 साल बाद ऐसा नहीं लगता था कि फिर से लड़ाई होगी। लेकिन जंग हुई।
मुझे याद है वो दिन जब 1971 की लड़ाई के दौरान मेरा परिवार बिहार के रामगढ़ में था। मेरी यूनिट 26 मद्रास रेजिमेंट बांग्लादेश स्थित जसूर खुलना की ओर बढ़ रही थी। पहले दौर में हमने जसूर पर कब्जा किया। इस दौरान मेरी यूनिट के मेजर एनके मेनन का पांव दुश्मन की माइंस फील्ड पर आ गया और उनकी टांग बुरी तरह जख्मी हो गई। इलाज के दौरान टांग काटनी पड़ी। 10 दिसंबर 1971 को हमें खुलना की ओर बढ़ने का हुक्म मिला।
उसके आगे दुश्मन मौजूद था और रास्ता बहुत संकरा था। तकरीबन दो से तीन किलोमीटर क्षेत्र में दोनों तरफ पानी भरा हुआ था। यहां पर हमें हमला करना था। 13 दिसंबर को हमने इस इलाके पर भी कब्जा कर लिया। इस हमले में हमारे कंपनी कमांडर मेजर आरके मनन शहीद हुए और साथ में दो जूनियर ऑफिसर्स के साथ पलटन के 15 जवान शहीद हो गए।
हमारी यूनिट ने इसके साथ लगते अन्य इलाकों पर भी कब्जा किया। 16 दिसंबर को हमने जसूर और खुलना के साथ लगते सभी इलाकों पर कब्जा कर लिया और पाकिस्तान के 4000 जवानों को बंधक बना लिया। इस लड़ाई के बाद ही बांग्लादेश स्वतंत्र राष्ट्र बना।
(जैसा कर्नल सूरी ने मनोज अपरेजा को बताया)
पंडित जी ने कहा था, उम्र बहुत लंबी है
मुझे याद है वो दिन जब हमारे कमांडिंग ऑफिसर कर्नल वीके सिंह ने मेजर मनन से कहा कि वे अपने सिर पर हेल्मेट लगाकर रखा करें। बमबारी हो रही है, इससे बचने के लिए हेल्मेट जरूरी है। मेजर मनन ने जवाब दिया था- ‘मुझे कुछ नहीं होगा पंडित जी ने घरवालों को बताया है, मेरी लंबी उम्र है, मुझे कुछ नहीं होगा।’
कुछ ही पल में एक बम उनके ऊपर आकर गिरा और मेजर मनन शहीद हो गए। वो पल ऐसा है जो कभी नहीं भूलता। इस घटना का मैं प्रत्यक्षदर्शी रहा हूं इसलिए मुझे रह रहकर यह पल याद आता है।
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