Friday 6 January 2012

77 साल पहले घटी इस घटना को सुन हैरान रह जाएंगे आप


। भोपाल रियासत की प्रिंसेस आबिदा सुल्तान की कि ज़िन्दगी का एक वाकया काफी मशहूर है। आज से 77 साल पहले बेटे की खातिर उन्होंने अपने शौहर पर ही रौद्र रूप दिखाया था। यह उसम की बात है, जब महिलाओं पर चारों तरफ से जुल्म होता था।

कोई महिला पुरुष के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकती थी। लेकिन शहजादी आबिदा सुल्तान ने आधी रात को ही अपने शौहर से पुत्र के लिए आर-पार करने पहुंच गईं। यह एक ऐसी घटना थी, जिसकी कल्पना कम-से-कम उस समय तो कोई नहीं कर सकता था। बेटे के लिए मां की लड़ाई इतनी बेमिसाल थी कि वो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गई।

बचपन से ही आबिदा की परवरिश लड़की के बजाए लड़कों की तरह की गई थी। वो घुड़सवारी करतीं, स्क्वाश खेलतीं, सौ मील से ऊपर की रफ्तार से गाडिय़ां दौड़ातीं और हर वो काम करतीं, जिसके बारे में उस कामाने और उनके खानदान की लड़कियां सोच भी नहीं सकती थीं। उन की शादी अपने रिश्ते के भाई से हुई, जो उम्र में उनसे काफी बड़े थे और इसीलिए वो शादी के बाद भी उन्हें ‘दादाभाई’ कहती रहीं। शादी से पहले उनके दादाभाई से अच्छे ताल्लुकात थे, लेकिन दादाभाई जब उनके शौहर बने तो उन्हें अंदाजा हुआ कि वो किसी पिंजरे में कैद कर दी गई हैं।

कुछ महीनों के अंदर ही मियां-बीवी के ताल्लुकात खराब हो गए और इस हद को पहुंचे कि वो अपने शौहर की रियासत छोड़कर अपने वालिद नवाब साहब भोपाल के पास चली आईं। यहीं वो एक बेटे की मां बनीं और उन्होंने तय किया कि अब वो दादाभाई की बीवी बनकर नहीं रह सकतीं। उनके शौहर को इस बात का अंदाका हुआ तो उन्होंने भोपाल की शहजादी को हर तरह से तंग करना शुरू किया। दादाभाई उन्हें लगातार धमकी देते थे कि वो अपना बेटा उनसे छीन लेंगे। बेटे की पहली सालगिरह पर भोपाल में सालगिरह का जश्न मनाने की तैयारियां होने लगीं। बाद का किस्सा आबिदा सुल्तान ने अपनी जीवनी में यूं बयां किया है :

दादाभाई ने खत के कारिए धमकी दी कि वो यह जलसा वायसराय के हुक्म से रुकवा देंगे। इसलिए 22 मार्च 1935 को रात के खाने के बाद जब सारे मेहमान चले गए तो मैंने रात दस बजे बेटे को दिन का आखिरी दूध पिलाया, रिवॉल्वर लोड किया और कार बाहर निकालने के लिए कहा। जब मैंने ड्रायवर से कहा कि मुझे उसकी जरूरत नहीं तो उसके चेहरे पर हैरानी थी। गाड़ी में बैठकर मैं शौहर की रियासत कोरवाई जाने वाली सड़क पर निकल पड़ी। मेरा चेहरा तना हुआ था और जिस्म झनझना रहा था। मगर मैं अपने बेटे और नवाब कोरवाई के पैतृक हक का झगड़ा एक बार हमेशा-हमेशा के लिए खत्म कर देना चाहती थी।

कच्चे रास्ते के जरिए कोरवाई भोपाल से सौ मील दूर था। मैं रात में सफर कर रही थी और जो कुछ मैं करने जा रही थी, उसकी तमाम तफसील अपने काहन में दोहरा रही थी। मैंने हर पहलू से अपने मंसूबे का जायजा लिया। हो सकता है मेरा शौहर वहां मौजूद न हो, कहीं शिकार पर गया हो। फर्ज़ किया कि अपनी मां के साथ या फिर अपने मखसूस जुआ खेलने वाले दरबारी दोस्तों के साथ हो। पता किया कि वो मुझे वापस भोपाल आने से रोक दे। ये तमाम ख्यालात मेरे तपते हुए दिमाग में घूम रहे थे।

रात एक बजे मैं महल में पहुंची। इत्मीनान हुआ कि महल की बत्तियां जल रही थीं। मैंने कार पोर्च में रोकी और लापरवाही से चाबियां दादाभाई के बदहवास निजी ड्रायवर मोहम्मद हुसैन की तरफ फेंकते हुए उसे गाड़ी का टैंक पेट्रोल से भरने का हुक्म दिया। मैं जानती थी कि गाड़ी में इतना पेट्रोल नहीं होगा कि मैं वापस भोपाल जा सकूं। ड्रायवर ने चाबियां ‘जी हुजूर’ कहते हुए पकड़ लीं।

उस वक्त तक मेरी वहां अचानक आमद की खबर फैल चुकी थी और ये साफ था कि मैंने रात गए तक जारी जुए के खेल को खराब कर दिया है। जब मैं अंदर दाखिल हुई तो तमाम जुआरी खौफकादा और हैरान-परेशान होकर खड़े हो गए। मेरे चेहरे पर शदीद गुस्सा साफ झलक रहा था। वहां दादाभाई की मौजूदगी का नामोनिशान नहीं था। मगर बेशक वो भी जुआ खेल रहे थे और मेरे अचानक आने की इत्तला पर जल्दबाजी में वहां से चले गए थे। ‘नवाब साहब कहां है?’ मैंने गुस्से से पूछा। दरबारियों ने हकलाते हुए जवाब दिया कि वो कुछ देर पहले सोने चले गए।


मैं वहां ज्यादा रुके बगैर सीधे ख्वाबगाह में जाने के लिए सीढिय़ां चढऩे लगी। कमरे में दाखिल होते ही मैंने अपने पीछे दरवाका बंद किया और बत्तियां जला दीं। दादाभाई रकाई में लिपटे लेटे थे। मेरी आहट पाकर वो फौरन तीर की तरह सीधे होकर बैठ गए और घबराकर बोले, ‘तुम इस वक्त यहां क्या कर रही हो?’ मैंने जवाब दिया, ‘मैं यहां अकेली आई हूं, ताकि तुम पर एक बात हमेशा के लिए साफ कर दूं कि मैं अपने बेटे से कभी जुदा नहीं हो सकती। मैं इसकी बजाय मरने को तरजीह दूंगी। इसलिए तुम्हें एक बेहतरीन मौका देती हूं कि तुम मुझे कत्ल कर दो और कह दो कि यह सब खुद मेरी वजह से हुआ।’ उस वक्त मेरा दिल कार-कार से धड़क रहा था। मैंने अपना रिवॉल्वर निकालकर दादाभाई की गोद में फेंक दिया और बोली, ‘हथियार मेरा है और भरा हुआ है। इसे इस्तेमाल करो और मुझे कत्ल करो। नहीं, तो मैं तुम्हें कत्ल कर दूंगी।’

दादाभाई बहुत कयादा बदहवास हो गए और कहने लगे, ‘लेकिन मैं उसका बाप हूं और अपने बेटे पर मेरा हक है।’ उनका यह जवाब मेरे दिल पर घूंसे की तरह लगा। हम हाथापाई करने लगे, जिसमें वो मुझसे बेहतर साबित नहीं हो सके। आखिऱकार वो अपनी रकाई में छुप गए और हिफाकात के लिए तकिया हाथों में पकड़कर आगे कर दिया। फिर उन्होंने इल्तिजा करनी शुरू कर दी - ‘चली जाओ, खुदा के लिए यहां से चली जाओ, मैं अपने बेटे पर किसी किस्म का कोई हक नहीं जताऊंगा, मुझे छोड़ दो और यहां से चली जाओ।’

यह 1935 में ब्रिटिश राज के साए में ज़िन्दगी गुज़ारने वाली भोपाल रियासत की शहजादी का किस्सा है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि ब्रिटिश राज में भी आला और हुक्मरान तबके की औरत जान पर खेलकर ही अपनी आजादी और हकों की हिफाजत कर सकती थी।

भोपाल रियासत और इससे जुड़े ऐसे कई किस्से मौजूद हैं, जिसे हम नॉलेज पैकेज के तौर पर आपतक पहुंचाएंगे। शहजादी आबिदा की हिम्मत और जज्बा आज भी सलाम करने लायक है तथा सताई जा रही महिलाओं के लिए प्रेरणा का काम कर सकता है। साथ ही यह रोमांचक किस्सा यह बताता है कि जमाना चाहे कोई भी हो, पुत्र के लिए मां जुदाई बर्दाश्त नहीं कर सकती। उसके और पुत्र के बीच आने वाले हर बाधा को वो पार करने की क्षमता रखती है।

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