Monday 16 January 2012

अगले दिन राम सभा में थे कि कोई कुत्ता बाहर आकर भौंका। लक्ष्मण यह जानकर कि कुत्ता राम से कोई फरियाद करना चाहता था, राम की अनुमति पर उसको सभा में ले गए।
कुत्ते को, जिसके सिर पर जबर्दस्त चोट लगी हुई थी, देखकर राम ने कहा - ‘‘तुम अपने कष्ट के बारे में निर्भय होकर बताओ।’’
‘‘सर्वार्थसिद्धि नाम के भिक्षु ने मेरा सिर तोड़ दिया है। मैंने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा था।’’ कुत्ते ने कहा। राम ने तुरंत उस भिक्षु को बुलाकर पूछा - ‘‘तुमने इस कुत्ते का सिर क्यों तोड़ा? इसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?’’
‘‘राजा, मैं भिक्षा के लिए सुबह से घर-घर घूम रहा था । मुझे कहीं कोई भीख नहीं मिली? उस हालत में यह कुत्ता मेरे रास्ते में आया। मैंने इसे बहुत मना किया। पर यह माना नहीं। यह सच है कि मैं अपना गुस्सा काबू में न रख सका और मैंने उसके सिर पर मार दिया। इसका जो भी कुछ दण्ड है मुझे दीजिये।’’ सर्वार्थसिद्धि ने कहा।
राम ने सभासदों से पूछा कि उसको कैसा दण्ड दिया जाना अच्छा होगा। सभा में वहुत से पण्डित थे, पर किसी ने भी दिए जाने योग्य दंड के लिए कोई तर्कपूर्ण और स्पष्ट उत्तर न दिया। राम को पूरे दरबार से कोई उत्तर न मिल सका।
तब कुत्ते ने राम से कहा - ‘‘हे राम, इसने मेरा बुरा किया है। अतः इसको जो दण्ड मैं बताऊं, वह दिया जाए। कालंभर नामक स्थल में इसको कुलपति का काम दो।’’ राम ने कुत्ते के कहे अनुसार न्याय कर दिया। भिक्षु को वह काम दिया और हाथी पर सवार करके उसे भेज दिया। भिक्षु भी बड़ा प्रसन्न हो चला गया।

उसके चले जाने के बाद, राम और मन्त्रियों ने उस कुत्ते से पूछा - ‘‘इस भिक्षु को तुमने इस प्रकार का दण्ड क्यों दिलवाया जिसे सीधे-सीधे दंड की जगह पुरस्कार माना जा सकता है? इसका अवश्य कोई कारण है। हम सभी वह कारण जानने को उत्सुक हैं।’’
‘‘मैंने पिछले जन्म में वहीं काम किया था। तब मुझे सुन्दर भोजन, दास दासी, सब कुछ मिले हुए थे। मैं दयालु, विनयशील, चरित्रवान के रुप में प्रसिद्ध था। देवताओं और ब्राह्मणों की मैंने पूजा की फिर भी चूंकि मैं उस पद पर था, इसलिए मुझ को यह हीन जन्म लेना पड़ा। महाकोपी भिक्षु जव वह काम करेगा, तो जन्म जन्मान्तर में नरक में सड़ेगा। यह अच्छी तरह पता होने के कारण ही मैंने उसके लिए यह दंड निर्धारित किया है,’’ कुत्ते ने कहा।
कुत्ते के चले जाने के बाद, एक उल्लू और गिद्ध में झगड़ा हुआ और वे राम के पास फैसले के लिए आये। एक जंगल में एक घर था, दोनों पक्षी यह कहकर झगड़ने लगे कि वह घर उसका था।
राम ने दोनों पक्षों की बात सुनी किन्तु कुछ निर्णय न ले सके। यह निर्धारित करने के लिए कि वह घर किसका था, वे पुष्पक विमान में अपने मन्त्रियों के साथ सवार होकर उस जगह आये जहॉं वह घर था।
‘‘इस घर को तुमने कब बनाया था?’’ राम ने गिद्ध से पूछा ।
‘‘भूमि पर जब मनुष्य पैदा हुए तब मैंने यह अपना घर बनाया था। यह तभी से मेरा ही घर है।’’ गिद्ध ने कहा ।
तुरंत उल्लू ने कहा - ‘‘हे राम, जब पृथ्वी पर पेड़ पैदा हुए तब मैंने यह घर बनाया था।’’
तुरंत राम के मन्त्रियों ने निर्णय किया कि वह घर उल्लू का ही था, चूंकि पृथ्वी पर पहिले वृक्ष आये थे। जब यह निर्धारित हो गया कि घर उल्लू का है, तो राम ने गिद्ध को दण्ड देने की सोची।
तभी वहॉं आकाशवाणी हुईः ‘‘हे राम! इस शापग्रस्त गिद्ध को क्यों और सताते हो? यह गिद्ध ब्रह्मदत्त नाम का राजा है। इसके घर गौतम अतिथि बनकर आये। राजा ने स्वयं गौतम का स्वागत किया। गौतम ब्रह्मदत्त का आतिथ्य स्वीकार कर रहे थे कि एक दिन उनके भोजन में, कहीं से मांस का टुकड़ा आ गया। यह देख गौतम क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने शाप दिया कि ब्रह्मदत्त गिद्ध हो जाये। गौतम ने यह भी कहा कि ईक्ष्वाकु वंश में पैदा होनेवाले राम जब उसको छुयेंगे, तब वह शाप-विमुक्त हो सकेगा।’’

 यह सुनकर राम ने उस गिद्ध को छुआ। तुरन्त गिद्ध एक दिव्य पुरुष बन गया। वह पुरुष राम को अपनी कृतज्ञता दिखाकर चला गया।
एक दिन यमुना तट के वासी सौ से अधिक मुनि राम के दर्शनार्थ आये। राम ने उनके लाये हुए फलों आदि के उपहारों को स्वीकार किया, उनको आसन दिया और पूछा कि वे किस काम से आये थे?
मुनियों ने राम को बताया कि लवणासुर नामक असुर उनको बहुत तंग कर रहा था। वन में और नदी किनारे ईश्वर उपासना या हवन-यज्ञ में रत किसी भी मुनि को वह चैन से नहीं बैठने देता था। यज्ञ विध्वंस करना और साधुओं को परेशान करना उसका प्रिय काम था। अतः वे चाहते थे कि राम उसके उत्पात से उन्हेंे बचायें।
यह लवणासुर मधुव राक्षस का लड़का था। मधुव ने बहुत लंबे समय तक रुद्र की तपस्या की और उनको सन्तुष्ट किया। तब रुद्र ने अपने त्रिशूल में से एक और त्रिशूल बनाकर उसको देते हुए कहा - ‘‘यह जब तक तुम्हारे साथ है, तब तक तुम्हें कोई नहीं जीत सकता। फिर मधुव ने शिव से प्रार्थना की कि यह त्रिशूल हमेशा उसी के वंश में सुरक्षित रहे।’’
‘‘तुम्हारे बाद यह त्रिशूल तुम्हारे लड़के के पास ही रहेगा। लेकिन उसके बाद यह वहॉं नहीं रहेगा।’’ शिव ने कहा। इस मधुव ने रिश्ते की रावण की छोटी बहिन कुम्भीनस से विवाह किया। उनके घर लवण पैदा हुआ। वह छुटपन से ही महा पापी था। मधुव उसको अच्छे मार्ग पर न ला सका। मधुव ने वरुण लोक जाते हुए शिव का दिया हुआ त्रिशूल लवण को दे दिया। लवण उसकी अद्भुत शक्ति से परिचित था ही इसलिए वह और उद्धत हो गया। वह मुनियों को भी बहुत सताने लगा।
मुनियों की बातें सुनकर राम ने उनसे कहा - ‘‘लवणासुर का वध मैं करवाऊँगा। आप लोग निश्र्चिन्त रहें।’’ इसके बाद उन्होंने अपने भाइयों को देखकर पूछा - ‘‘लवणासुर को मारने का काम कौन करेगा?’’
भरत ने इस काम को करने का बीड़ा उठाया। लेकिन शत्रुघ्न को यह बात पसंद नहीं आई। उन्होंने कहा कि उनके होते भरत का कष्ट उठाना अच्छा न था अतः यह वह काम करेंगे। उन्होंने कहा कि जो कुछ कष्ट भरत को उठाने थे, वे उन्हेंे पहले ही नन्दीग्राम में रहते समय झेल चुके हैं। अतः अब उन्हें कष्टप्रद कार्य शत्रुघ्न को सौंप देने चाहिये।
राम इसके लिए मान गये। उन्होंने कहा कि किसी एक राजा के मर जाने पर, तुरन्त उसका राज्य भार उठाने के लिए कोई और योग्य व्यक्ति उपलब्ध होना चाहिये। अतः उन्होंने शत्रुघ्न को मधुपुर का राजा नियुक्त करने की व्यवस्था की।


 शत्रुघ्न के राज्याभिषेक उत्सव समाप्त होते ही, राम ने उन्हेंे एक बाण देते हुए कहा - ‘‘इस बाण ने मधुकैटभ को मारा है। इसका मैंने रावण पर भी उपयोग न किया था। इससे तुम लवणासुर को मारो। एक और बात। लवण के पास शिव के त्रिशूल-सा एक त्रिशूल है । जब तक वह उसके हाथ में है, तब तक उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। लवण अपना त्रिशूल अपने घर में ही रखता है। इसलिए, जब वह नगर छोड़कर कहीं गया हुआ हो, तुम नगर को घेर लेना। जब वह वापस आये, तो नगर के द्वार पर ही उससे मुकाबला करना और उसको मार देना। किसी भी परिस्थिति में वह नगर के अन्दर न जाये और त्रिशूल उसके हाथ में न आने पाये।’’
यही नहीं, राम ने शत्रुघ्न से कहा कि वह पहले अपनी सेना भेज दें और बाद में अकेले जाएँ। लवण को यह न पता लगे कि कोई उसे मारने आ रहा था। ग्रीष्म ऋतु में सेनाओ को गंगा पार करके, उस तरफ पड़ाव करना चाहिये । शत्रुघ्न वर्षा के आरम्भ में युद्ध के लिए सज्जित होकर जाएँ और लवणासुर को मारें।
तदनुसार शत्रुघ्न ने पहिले अपनी सेना भेज दी। एक मास बाद वे स्वयं निकले। रास्ते में दो दिन के लिए वे वाल्मीकी आश्रम में रहे। वाल्मीकी ने उसको आतिथ्य दिया। फिर संध्याकाल में मुनि कई प्रकार के इतिहासों का वर्णन करते रहे। शत्रुघ्न सभी बातें विनयपूर्वक और बड़ी रुचि के साथ सुनते रहे। मुनि ने शत्रुघ्न को बताया कि कभी वह आश्रम रधुवंशवालों का ही था। इसके पीछे की कथा मुनि ने यूँ सुनाईः
रघुवंश में कभी सुदासु नाम राजा हुए थे। उनका लड़का वीरसह बड़ा बलवान था। छुटपन में ही एक बार जब वह शिकार खेलने गया, तो उसने दो राक्षसों को देखा। वे राक्षस शेर के रूप में इधर उधर घूमते और जानवरो को खाया करते। जानवरों मो मार-मार कर उन्होंने सारा जंगल ही मानो निर्जीव-सा कर दिया। कहीं भी कोई जानवर न रहा। यह देख वीरसह को बड़ा गुस्सा आया। उसने उन राक्षसों को देखते ही उनमें से एक को मार दिया। तब दूसरे ने कहा - ‘‘पापी, तुमने मेरे साथी को मार दिया। देखो तुम्हारा क्या करता हूँ?’’ कहकर वह तब अदृश्य हो गया।
कुछ समय बीता। उस राजा ने इसी आश्रम में एक बहुत बड़ा अश्र्वमेघ यज्ञ किया। वशिष्ट मुनि ने उस यज्ञ का पौरोहित्य किया। यज्ञ पूरा होने को था कि वह राक्षस वशिष्ट के रूप में, राजा से बदला लेने आया। ‘‘राजा, यज्ञ पूरा हो गया है। मुझे अच्छे मांस का भोजन दो ।’’
 


 राजा ने सन्तुष्ट होकर रसोइये को बुलाकर कहा - ‘‘गुरु जी के लिए यज्ञ के मांस से भोजन तैयार करो।’’ इस बीच राक्षस ने रसोइये का रूप धारण  कर लिया। नर मांस से भोजन तैयार करके, राजा को दिखाकर उसने कहा - ‘‘देखिये, यज्ञ के मांस से मैंने कितना अच्छा भोजन बनवाया है?’’ राजा ने अपनी मन्त्री से वह नरमांस परोसवाया। वशिष्ट के पास कई तरह की शक्तियॉं थक्षं औ वे त्रिकालदर्शी थे। मांस को देखकर वे तुरन्त समझ गए कि वह यज्ञ का नहीं बल्कि नरमांस है। यह देखकर, क्रुद्ध होकर मुनि ने राजा को शाप दिया - ‘‘तुम नरभक्षी हो जाओ।’’ राजा को गुस्सा आया। उसने भी वशिष्ट को शाप देने के लिए हाथ में पानी लिया। पर इससे पहिले कि वह शाप देता, उसके मन्त्री ने उसे रोका। वह बोला - ‘‘वे हमारे लिए देवतुल्य है। आप उनको शाप न दीजिये।’’ तब राजा ने अपने हाथ का पानी अपने पैरों पर ही डाल लिया। उस पानी के कारण, राजा के पैर कल्मशपूर्ण हो गये। तब से उसका नाम कल्मशपाद पड़ा।
बाद में मुनि वशिष्ट को इस पूरी घटना के पीछे की बात पता लगी। सब जानकर उन्होंने कल्मशपाद पर शाप की अवधि बारह वर्ष तय कर दी। वह बारह वर्ष तक नरभक्षक के रूप में जीता रहा और शाप के खतम हो जाने के बाद, वह हमेशा की तरह राज्य पालन करने लगा।
इस प्रकार कई इतिहास सुनकर शत्रुघ्न अपनी पर्णशाला में जा रहे थे कि उसी समय आश्रम में रह रही माता सीता ने दो जुड़वे बच्चों को जन्म दिया। सीताजी को जुड़वां पुत्रों की प्राप्ति पर वशिष्टाश्रम में उत्सव का महौल हो गया। मुनिकुमारों से सूचना मिलने पर ऋषि वाल्मीकी वहॉं गये। चन्द्रमा की तरह तेजवान्‌ बच्चों को देखकर, उन्होंने बड़े का नाम कुश रखा और दूसरे का लव।
राम के पुत्रों के जन्म का यह वृत्तान्त ठीक आधी रात के समय हुआ। आश्रम में मौजूद शत्रुघ्न भी यह पता लगते ही तुरन्त सीता और दोनों बालकों को देखने गए। अपने वंश की अगली पीढ़ी देखकर बहुत खुश हुए। इस अवसरपर अपने परिवार के एक सदस्य का मौचूद होना सीताजी के लिए भी सन्तोष का विषय था।

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