Friday 25 April 2014

Previous फिल्म रिव्यू: कांची

मुंबई, (मनीष त्रिपाठी)।
निर्देशक: सुभाष घई
प्रमुख कलाकार: अभिनेत्री मिष्ठी, अभिनेता कार्तिक आर्यन, ऋषि कपूर, मिथुन चक्रवर्ती, ऋषभ सिन्हा
संगीतकार: सलीम और सुलेमान, इस्माइल दरबार
स्टार: तीन
रेसिपी में लिखा था कि शानदार स्वाद के लिए कद्दू और अंगूर को समान मात्रा में मिलाएं, लेकिन रसोइए ने इन्हें समान अंकों में मिला दिया। एक कद्दू और एक अंगूर। कुछ ऐसी ही है मुक्ता आर्ट्स की बहुप्रचारित फिल्म कांची, जो रंग दे बसंती बनते-बनते बसंती का इंतकाम बन कर रह गई। लेकिन केवल इस एक पहलू की वजह से इसे खारिज कर देना भी सुभाष घई की सिनेमा शैली के प्रशंसकों से बहुत नाइंसाफी होगी। अगर आप इससे किसी सामाजिक क्रांति या स्त्री शक्ति के आह्नान (जैसा कि इसे रिलीज से पूर्व प्रचारित किया गया था) की अपेक्षा को छोड़ने को तैयार हैं तो यह आपका भरपूर मनोरंजन करती है।
इसके ओपनिंग शाट से लेकर क्लाइमेक्स तक हर फ्रेम में जैसे सुभाष घई की नेमस्लिप चिपकी हुई नजर आती है। खूबसूरत पहाड़ों के बीच एक मासूम सी प्रेमकथा, हीरो की दुर्घटना जैसी दिखने वाली हत्या, द्विअर्थी गीत पर नाचते-गाते खलनायक, बदला लेने के लिए हीरोइन द्वारा अपनी खूबसूरती का इस्तेमाल और क्लाइमेक्स में बंधक बनाए गए रिश्तेदार; पुराने दौर के दर्शकों के लिए कांची एक परफेक्ट पैकेज मालूम होती है। इस फिल्म की कहानी उत्तराखंड के एक गांव कोशंपा में बुनी गई है, जहां अधिकांशत: रिटायर्ड फौजियों के परिवार रहते हैं।
बिंदा (कार्तिक आर्यन) गांव में युवाओं और युवतियों को फौज के लिए तैयार करने का स्कूल चलाता है। कांची (मिष्ठी) से उसका प्रेम कुछ नोक-झोंक और शरारतों वाला है। कांची कुछ गुस्सैल है, कुछ निडर और इसी वजह से वह गलत काम करने वालों से टकरा जाती है। कोशंपा पर एक राजनीतिज्ञ-बिल्डर परिवार की नजर है और कांची पर इस परिवार के बेटे (ऋषभ सिन्हा) की। कांची की शादी बिंदा से तय होती है तो बिल्डर परिवार का बेटा बिंदा को मरवा कर पूरे खानदान के साथ मुंबई भाग जाता है। कांची मुंबई पहुंच कर उस परिवार को तलाशती है, उनके राजनीतिक और व्यावसायिक करियर तबाह करती है और फिर गुमनाम तरीके से अपने गांव लौट आती है।
इस पूरी कहानी में एक एनजीओ भी है जो अपने तरीके से भ्रष्टाचार की सफाई में जुटा है और उसका साथ मिलने से कांची का काम कुछ आसान हो जाता है। राजनीति, जमीन, एनजीओ, अपराध और एक औरत का बदला मिल कर फिल्म को लाजिमी रूप से ऐसे क्लाइमेक्स पर पहुंचा देते हैं, जहां कुछ सेकेंड के लिए आदर्शो की आइसिंग की गुंजाइश बन ही जाती है। अपने ट्रीटमेंट और हीरोइन के ड्रेसिंग सेंस में कांची कहीं-कहीं ताल जैसी नजर आती है लेकिन कुछ-कुछ देर में हीरोइन के मुंह से झड़ती गालियां और तड़तड़ाते तमाचे आपकी तंद्रा और मिष्ठी के नई ऐश्वर्या राय होने के भ्रम को तोड़ देते हैं।
फिल्म का असल आनंद मिथुन चक्रवर्ती के राजनीतिक फलसफों और बिल्डर के रूप में ऋषि कपूर की रोमांटिक बेवकूफियों में आता है तो वहीं कई शेड्स वाले पुलिस अधिकारी के रूप में चंदन राय सान्याल अपनी प्रतिभा और टाइमिंग से हतप्रभ कर देते हैं। कांची का साउंड इफेक्ट बेहतरीन है और सुधीर चौधरी की सिनेमैटोग्राफी लाजवाब, इरशाद कामिल के गीतों में सहज बहाव है और निर्देशन नायाब; काश यही चुस्ती संपादन में भी दिखती तो आज कांची को देखते हुए 'शोमैन सुभाष घई' की पुरानी फिल्मों की याद इतनी शिद्दत से न आती!

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