Saturday 21 September 2013

फिल्म रिव्यूः फटा पोस्टर निकला हीरो शाहिद कपूर और उसने किया उम्दा एक्शन और कॉमेडी

फिल्म फटा पोस्टर निकला हीरो का एक सीन
पांच में से तीन स्टार
पोस्टर और हीरो बड़ी फिल्मी चीजें हैं. चीजें और भी हैं. जैसे बेटे का भविष्य बनाने के लिए कठोर मेहनत करती मां. मां के लिए जमाने की नजर में कभी शबनम तो कभी शोला बनता बेटा.बाप से जुड़ा एक अतीत. एक हीरोइन जिसे किस्मत ऐन वहीं ले जाकर भिड़ा देती है, जहां एक बांका, लेकिन कुंवारा दिलेरी दिखा रहा है. कुछ गुंडे, कुछ गाने. आखिरी में ट्विस्ट, ले तेरे की, दे तेरे की और फिर...दुनिया में सब ठीक हो गया.फटा पोस्टर निकला हीरो में ये सब चीजें हैं. दूसरी फिल्मों में भी होती ही हैं. यहां इन सबका इस्तेमाल कुछ फ्रेश ढंग से किया गया है. इसलिए फिल्म एंटरटेनिंग बन पड़ी है. जहां कहीं भी थोड़ी झिलने लगती है, वहां भोकाल टाइट कर देता है एक्शन. एक्शन से ऊबे तो आ जाता है बिना भद्दा हुए कोई कॉमेडी सीन. और बीच बीच में हमारे पास मां है.तो अगर फैमिली ड्रामा, एक्शन और कॉमेडी का मिक्स्चर खाना है, तो बिना हिचक पोस्टर फाड़ने जाइए. फिल्म फुल्टू मसाला है. बहुत बड़े दावे नहीं करती. इसलिए निराश भी नहीं करती. बस गाने कुछ ज्यादा ही भोंक दिए हैं कहानी के सीने में. पर जब तक आप इस पर छाती पीटने की सोचें, तसल्ली बख्शते हुए और कुछ नए टूरिज्म टाइप सीन दिखाते हुए वे खत्म हो जाते हैं.
कहानी है मां(पदमिनी कोल्हापुरे) और उसके बेटे विश्वास राव(शाहिद कपूर) की. मां का एक ही सपना है. बेटा इंस्पेक्टर बने औऱ वह भी बहादुर और ईमानदार. बेटे का एक ही सपना है. वह इंस्पेक्टर भी बने और डॉक्टर भी. जज भी और डॉन भी. सपनों का क्लैश होता है और मां के आंसू, उसकी कसमें जीत जाती हैं. मगर जब पुलिस में भर्ती होने के लिए विश्वास मुंबई आता है. तो लाइफ बदल जाती है. एक फोटो शूट में इंस्पेक्टर की कॉस्ट्यूम क्या पहनी, उसकी तो होली दीवाली हो ली. अब हीरो है और अभी तक कुंवारा है तो प्यार करने, कॉमेडी करने के लिए आती है हीरोइन, नाम है काजल(इलियाना). यहां विश्वास का एक एक्टर परिवार भी बन जाता है, जिसमें एक जेब में सस्ती कलमों की फौज भरे पिटे हुए राइटर हैं और कुछ और एक्टर जैसे लोग, जो हीरो बनने आए हैं. एक ईमानदार अफसर है और बहुत सारे बेईमान भी. एक गुंडा गुंडप्पा (सौरभ शुक्ला) है, उसके चूजे हैं और एक बड़ा डॉन भी. जो सच्चे हिंदुस्तानी डॉन की तरह विदेश में रहता है और मुंबई में तबाही मचाना चाहता है. हां तो किरदार तो हो गए. कहानी आगे ये बढ़ती है कि मां को लगता है कि बेटा इंस्पेक्टर है. मगर वो तो है ही नहीं. फिर भी काम उसी के करता है. लेकिन झूठ तो झूठ है और उसे ठीक करने के लिए पूरी-पापड़ बेलने पड़ते हैं विश्वास को, ताकि यकीन फिर मिल जाए उसे मां का.
फिल्म में शुरुआत में ही भोली भाली मेरी मां गाने के साथ यह तय कर दिया जाता है कि मां-बेटे का ये रिश्ता, जो सत्तर में कंक्रीट सा जम गया था, यहां भी फिल्म की रीढ़ की हड्डी बनेगा.उसके बाद हीरो को मटकने के लिए मिलता है टपोरी गाना खाली पीली टोकने का नहीं. इसमें एक लाइन आती है, तू मेरे अगल बगल है. उस पर शाहिद जो आधा शरीर मटकाते हैं, झटके-रुक के वाले अंदाज में, तो मजा आ जाता है. फिल्म में कुछ और बड़े प्यारे गाने हैं. मसलन, मैं रंग शरबतों का, तू मीठे घाट का पानी. क्लब में रॉक स्टार वाली नरगिस फखरी भी आइटम डांस डटिन नाच करती हैं.पर गानों में एक गड़बड़ है. वो बस एकदम से आ जाते हैं, स्टोरी का हिस्सा नहीं लगते. ऐसा लगता है जैसे फिल्म के बीच में कोई म्यूजिक वीडियो दिखा रहे हों अच्छा सा.
पोस्टर फाड़कर निकले हीरो शाहिद ने कॉमेडी अच्छी की है. मजाकिया ड्रामा भी डराता नहीं है. मगर सीरियल सीन्स में उनका शरीर कड़ा दिखता है, जैसे बस अभी जिम से उठकर आए हों.इलियाना ठीक लगी हैं, मगर लाइट रोल के लिए अभी उन्हें कुछ और मेहनत करनी होगी. साइड एक्टर्स का काम उम्दा रहा है. पदमिनी के चेहरे पर ममता और फिर मुंबई का भौंचक्कापन असल लगता है.
राजकुमार संतोषी लंबे ब्रेक के बाद लौटे हैं. उन्होंने अंदाज अपना अपना जैसी कल्ट कॉमेडी तो नहीं दी. मगर आज कल की कॉमेडी के नाम पर कुछ फूहड़ भी नहीं परोसा. कई डायलॉग और सीक्वेंस बेतरह हंसाते हैं और इसकी तस्दीक हॉल में बैठी पब्लिक भी कर रही थी. कहानी उन्होंने खुद ही लिखी है और इसमें बहुत असल का दावा भी नहीं दिखता. सब कुछ जाना पहचाना है. मगर उसको अच्छे से जोड़ा गया है. अच्छा फैमिली ब्रेक हो सकती है फटा पोस्टर निकला हीरो.

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