Sunday 15 September 2013

मोदी नाम केवलम् का मतलब

Sona Mohapatra My love
गए शुक्रवार को दिल्ली की लुटियन जोन से जब सूरज का साया उठ रहा था, उस वक्त भाजपा मुख्यालय में उम्मीद की नई किरणें फूट रही थीं। नरेंद्र मोदी ने आखिरी बाधा पार कर एनडीए के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी का दर्जा हासिल कर लिया था। आडवाणी और उनके खेमे की हालत अंधेरे के आगोश में जाते सूर्य की मानिंद थी। साफ है, अगले कुछ महीने पार्टी की नई नीति-रीति होगी- मोदी नाम केवलम्।
जय-पराजय के इस तार्किक अंत के बाद उपजे उल्लास में मुझे दो-तीन दिन पुराने टीवी फुटेज याद आ गए। पहला मुजफ्फरनगर से, जहां कर्फ्यू में ढील के दौरान खौफ और गम के साये से उबरने की कोशिश करते लोगों का झुंड दीख रहा था। दूसरा जयपुर से। वहां नरेंद्र मोदी के लिए आयोजित सियासी जलसे में दर्जनों बुर्कानशीं औरतें और दाढ़ी वाले लोग दिखाए जा रहे थे। क्या इन दोनों दृश्यों में कोई समानता है? यकीनन हां।

मरुभूमि के शीर्ष शहर में आत्मविश्वास से लबरेज मोदी की यह सियासी चाल थी। वह 2002 के दंगों की काली छाया से उबरने की कोशिश में अब खुद को सर्वमान्य और सर्वप्रिय नेता साबित करने की जुगत में हैं। एक टेलीविजन चैनल की पत्रकार ने बुर्काधारी महिलाओं से पूछा कि क्या उनसे कहा गया था कि वे पर्दे के इस प्रतीक को पहनकर आएं? जवाब मिला- हां। हंसते हुए एक युवती ने यह भी जोड़ा कि बुर्का हमारी धार्मिक परंपराओं का प्रतीक है, हमें इसे पहनकर गर्व होता है। हम यहां मोदी जी को इसलिए समर्थन देने आए हैं, क्योंकि कांग्रेस ने मुसलमानों के साथ धोखा किया है। यह कहते हुए उसके चेहरे पर हंसी उभर आई थी। उसकी मुस्कान सहज थी या व्यंग्य की उपज?

उधर मुजफ्फरनगर में खौफजदा लोग शताब्दियों से साथ रह रहे पड़ोसियों के प्रति फिर से सखा भाव जगाने की कोशिश में हैं। एक तरफ महत्वाकांक्षाओं से उपजा प्रदर्शन है, तो दूसरी तरफ पीड़ा के दौर में फिर से नई जिंदगी जीने की चाहत। मोदी अगली पारी के लिए राजनीतिक तैयारी कर रहे हैं और सियासत के अखाड़चियों ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की इस पानीदार जमीन पर अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए जो खूनी खेल खेला, आम आदमी उससे उबरने की जुगत में है।

आप याद कर सकते हैं। हिन्दुस्तान के इस कॉलम में मैंने पिछले कुछ हफ्तों में अनेक बार अनुरोध किया कि हिंदी पट्टी में सांप्रदायिकता के बीज फिर से बोने की कोशिश हो रही है। ऐसा सिर्फ और सिर्फ सियासी इच्छाओं को सिरे तक पहुंचाने के लिए किया जा रहा है। हमारे राजनेताओं को सामाजिक एकता नहीं, बल्कि दरारें रास आती हैं। होता तो यह शुरू से आया है, पर 1992 में हमने इसका चरमोत्कर्ष देखा। एक बार फिर से चुनावी खेती के लिए उसी जहरीले खाद-पानी का इस्तेमाल किया जा रहा है। कौन कहता है कि भारतीय राजनीति में एक बार खेला गया कार्ड बासी और बेकार हो जाता है?

उत्तर प्रदेश पुलिस का रिकॉर्ड बताता है कि इस साल अब तक 20 से ज्यादा बड़े सांप्रदायिक संघर्ष हो चुके हैं। इनमें 50 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। इसी तरह, बिहार में भी पिछले कुछ महीनों में नवादा और बेतिया में सांप्रदायिक टकराव हुए। सांविधानिक पदों पर बैठे हमारे राजनेता इन संवेदनशील मुद्दों पर खुद कितने असंवेदनशील हैं, इसका परिचय भी हमें लगातार मिलता रहा है। जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ में पिछले महीने दंगा हुआ। इसमें तीन लोगों को जान गंवानी पड़ी। आप भूले नहीं होंगे कि इस दौरान वहां के तेज-तर्रार और प्रगतिशील समझे जाने वाले मुख्यमंत्री ने क्या कहा? उमर अब्दुल्ला ने टेलीविजन के लाइव इंटरव्यू में यह कहकर चौंका दिया था कि मरने वालों में दो लोग एक धर्म के हैं, बाकी एक दूसरे संप्रदाय का। क्या वह सेकुलरिज्म और सुशासन की बात करते हुए सांप्रदायिक कार्ड नहीं खेल रहे थे?

यह हमारा दुर्भाग्य है कि कुछ लोग खुल्लमखुल्ला धार्मिक संप्रदायों की बात करते हुए राजनीति करते हैं, तो उनके विरोधी सेकुलरिज्म के नाम पर उसका उल्टा दांव चलते हैं। दोनों का अभिप्राय एक ही होता है, मतों के विभाजन का फायदा उठाना। हम सबने देखा है कि दंगों के दौरान अचानक कुछ राजनेता गोल टोपियां और अरब देशों के अंगोछे ओढ़-पहनकर नमूदार हो जाते हैं। हमें कोई दिक्कत नहीं है, यदि वे रोज ऐसे कपड़े पहनें। पर जब एक तरफ जानें जा रही हों, तब खास किस्म के लोगों को अपने पीछे खड़ा कर और ऐसी वेशभूषा धारण कर वे क्या संदेश देते हैं? कुछ लोग इसे सॉफ्ट ‘कम्युनलिज्म’ कहते हैं। मेरी नजर में जहर, जहर है। वह मीठा है या तीखा, क्या फर्क पड़ता है?

इन कुटिल चालों के पर्दाफाश के लिए हमें अभी से सतर्क हो जाना चाहिए। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएंगे, इस तरह की हरकतें बढ़ती जाएंगी। कहीं ऐसा न हो कि कुछ लोगों के फायदे-नुकसान के लिए हम शताब्दियों पुराने अपने सामाजिक ताने-बाने में ऐसे छेद कर लें, जिन्हें फिर रफू न किया जा सके! आंकड़े गवाह हैं कि हालात खतरनाक हैं। देश में पिछले आठ महीनों के दौरान सांप्रदायिक संघर्ष के 451 मामले दर्ज किए गए। पिछले साल यह आंकड़ा 410 पर सिमटा हुआ था। अभी चुनाव में छह से आठ महीने बाकी हैं। यह समय अति सतर्कता का है।

मोदी की उम्मीदवारी ने हिंदी पट्टी में नए सियासी समीकरण उपजा दिए हैं। मुजफ्फरनगर में हमने देखा कि किस तरह तथाकथित सेकुलर पार्टियों ने सांप्रदायिक भावनाएं भड़काईं। एक बात ध्यान रहे, मोदी के नाम पर कई प्रदेशों में ‘सॉफ्ट कम्युनलिज्म’ का कार्ड खेला जाता है। हो सकता है कि बहुत से लोगों को उनसे लगाव या दुराव हो, पर इसमें कोई दो राय नहीं कि उन्हें प्रधानमंत्री पद की आकांक्षा पालने का कानूनी हक हासिल है। ठीक वैसे ही, जैसे ठाकरे अथवा ओवैसी परिवार को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को सिरे चढ़ाने का अधिकार है। हम इन लोगों के प्रति अपनी पसंद या नापसंद ईवीएम मशीन के जरिये दर्ज करें, न कि खून की होली खेलकर। याद रखें। खून हमारा बहता है, राज वो करते हैं।

हमारे देश में जनता-जनार्दन ने कई बार देशहित में अपने वोट की ताकत का प्रयोग किया है। वह मौका फिर मिलने वाला है। अपनी शक्ति को संजोकर रखिए, काम आएगी। यहां नरेंद्र मोदी से भी एक अपील करना चाहूंगा। यह ठीक है कि इस देश की सत्ता के शीर्ष पर जाने का हक उन्हें संविधान ने दिया है, पर यह भी सच है कि हमारे यहां सामाजिक परंपराओं का महत्व सबसे ऊपर माना जाता है। वह जिस प्रदेश से आते हैं, वहीं कभी गांधी जनमे थे। इस दुबले-पतले शख्स ने कथनी और करनी का फर्क मिटाकर ऐसी मिसाल कायम की, जो इंसानियत के इतिहास में अपना अलग स्थान रखती है। नरेंद्र मोदी उनकी शख्सियत को याद क्यों नहीं करते?

उम्मीद है, वह आने वाले वर्षों में अपने व्यक्तित्व को ऐसा बनाएंगे कि उसके लिए उन्हें बुर्केवालियों और दाढ़ीवालों की भीड़ जुटाने की जरूरत न पड़े। उनकी पार्टी के अटल बिहारी वाजपेयी ऐसा करके दिखा चुके हैं। गांधी और अटल बिहारी के बीच से एक रास्ता मोदी के लिए भी निकलता है। उन्होंने पार्टी की अंदरूनी जंग जीत ली है। अब वक्त आत्मशुद्धि और पारदर्शिता का है। यह आसान नहीं है। बस इतना समझ लीजिए, इक आग का दरिया है और डूब कर जाना है।

  

No comments:

Post a Comment