Monday 16 September 2013

नसीरुद्दीन और रणदीप की जॉन डे सुस्त, बोरिंग और कमजोर कहानी वाली फिल्म है

फिल्‍म जॉन डे का एक दृश्‍य
पांच में से एक स्टार. एक प्रॉड्यूसर साहब हैं. उन्होंने नीरज पांडे नाम के एक लड़के की कहानी पर दांव लगाया. फिल्म बनी ए वेडनेसडे. कम बजट की शानदार एक्टिंग. यादगार किरदार वाली फिल्म, जो अब भी जब टीवी पर आती है, तो बेतरह देखी जाती है. प्रॉड्यूसर साहब को लगा कि उन्हें एक चालू फॉर्मूला मिल गया. उन्होंने दूसरे डायरेक्टर को पकड़ा, एक स्पेनिश ला कजा 507 की कहानी का बॉलीवुडकरण किया और पुराने सबक के तौर पर नसीरुद्दीन शाह को ले लिया. फिल्म बनी जॉन डे. जो बेहद तंगदिल, कन्फ्यूज्ड, अधूरे किस्से सुनाती और बोरिंग सी थ्रिलर है. ये फिल्म ए वेडनेसडे से भी प्रेरित लगती है. वहां नसीर आम आदमी थे, उनका मकसद और तैयारियां बड़ी थीं. यहां नसीर जॉन डे के रोल में हैं. उनका मकसद पूरी तरह से पर्सनल है और आखिर में वह बॉलीवुड के एक औसत हीरो की तरह सबको मार गिराते हैं. इस औचक फायरिंग में हम भी मर से जाते हैं.
जॉन डे कहानी है इसी नाम के एक बैंक मैनेजर की. उसकी बेटी एक हादसे में मर गई. जॉन और उसकी बीवी इस हादसे से उबरने की बेतरह कोशिश कर रहे हैं. तभी उनके साथ एक और हादसा हो जाता है. अब बूढ़ा जॉन फैसला करता है कि उसे ही कुछ करना होगा. उधर एक एसीपी है. जिसकी एल्कोहलिक गर्लफ्रेंड है और है एक लैंड डील. इस डील के दो किनारों पर खड़े हैं दो डॉन. दुबई में बैठा पठान और मुंबई से हुकुम चलाता खान.इनके बीच एसीपी का ज्यादा से ज्यादा पैसा बनाने का खेल तब तक चलता है, जब तक उसकी राह में जॉन नहीं आ जाता, जिसके पास एक भावुक मकसद है और उसमें मदद के लिए दैवीय किस्मत भी.अंत में सब अपनी फिल्मी न्यायोचित गति को प्राप्त होते हैं.
फिल्म में नसीरुद्दीन शाह ने अच्छी एक्टिंग की है. मगर कहानी इतनी भुरभुरी है, कि सब बेकार हो जाता है.उनकी पत्नी के रोल में कुछ देर के लिए ही सही शरनाज पटेल राहत देती और कुछ उम्मीद जगाती नजर आती हैं. रणदीप हुड्डा एसीपी के रोल में ऐसे दिखते हैं, जैसे उन्हें कब्ज की शिकायत हो, हैंगओवर हो और च्युइंगम उनके एक जबड़े में चिपक गई हो. नतीजतन देख रहे हैं, तो अटक गए हैं टाइप की निगाहें, चबे चबाए संवाद और फ्लैट फेस सामने आते हैं. उनकी गर्लफ्रेंड के रोल में एलेना ऐसी दिखती हैं, जैसे उन्हें हिंदी बोलने में बहुत तकलीफ होती हो. गैंगस्टर और फैशन वाली कंगना की जुड़वां बहन दिखती हैं वो स्क्रीन पर, बोलती भी कुछ वैसे ही अटक कर हैं.फिल्म में कई अच्छे एक्टर हैं. मगर उनके पास रोल नहीं था ज्यादा कुछ. मसलन. मकरंद देशपांडे या अनंत महादेवन. विपिन शर्मा को कुछ स्पेस मिली है और उतने में ही वह अपने जंजीर के अमिताभ फैक्टर से गुदगुदा जाते हैं.शरत सक्सेना की एक्टिंग अच्छी है. मगर सबकी तरह उनका रोल भी बहुत कुछ कहने के फेर में अधर में लटक जाता है.
फिल्म में धार्मिक प्रतीकों के सहारे कुछ दार्शनिक सा कहने की कोशिश की गई लगती है. हर इंसान में एक भेड़िया होता है. हर कोई अपने अतीत के अंधेरों में घिरा रहता है. ऐसा ही कुछ और भी. जॉन का धर्म ईसाई है, तो एक जगह वह पिटता है, तो क्रॉस पर गिरता है और फिर चमत्कार सा ट्विस्ट आ जाता है.एसीपी बचपन के हादसे से अब तक गवर्न होता है. खान भी अपने गुनाहों की खुद को सजा देता रहता है, फिर भी माफियागीरी नहीं छोड़ता.
फिल्म में गालियों का गेय ढंग से इस्तेमाल है. वो गली में कहते हैं न, बे बहुत गाकर गाली दे रहे हो. उसी टाइप से. इसके अलावा खून खच्चर के कुछ ऐसे सीन हैं, जिन्हें देखकर उबकाई सी आने लगे. टरंटीनो की डीवीडी ज्यादा देखने के यही नुकसान हैं. फिल्म थ्रिलर बताई जा रही है. मगर उसकी पहली शर्त रफ्तार और पहली जरूरत बांधे रखने वाली रहस्य रोमांच से भरी कहानी, दोनों यहां नदारद हैं. बस इत्मिनान इस बात का कर सकते हैं कि बीच बीच में गाने नहीं आते. एसीपी किसी डांस बार में नहीं जाता. विलेन के यहां मुजरा नहीं होता.थकी हुई कहानी के बीच में कुछ एक संवाद ढंग के हैं. मगर घुन मारे जा रहे हों, तो गेंहू कौन बचा पाएगा.
जॉन डे देखने की सिफारिश मैं कतई नहीं करूंगा. बाकी आपकी मर्जी है अपने डे की किस्मत तय करने की.

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