Friday 24 January 2014

आस्था की जड़ों ने दी मेले को 'संजीवनी'

raofamilysirsa
इलाहाबाद। बारिश, कीचड़, जलप्लावन, पानी की किल्लत, अनाज की किल्लत जैसी तमाम मुसीबतें। अव्यवस्था को दरकिनार कर गंगा, यमुना व अदृश्य सरस्वती के पावन संगम के तट पर बसा आस्तिकों का मेला सोमवार को अपने पूरे रौ में आ गया। पंडाल गुलजार हो गए।
रासलीला, रामलीला व प्रवचन की बयार बह निकली। सड़कों पर दुकानें सज गईं तो पहली बार भीड़ भी खरीदारी करने उमड़ पड़ी। रेत में बसी तंबुओं की नगरी में फिर से रौनक छाने लगी है। पौष पूर्णिमा स्नान के साथ 16 जनवरी से शुरू हुए इस मेले का पहला सप्ताह खासा खराब बीता। बारिश ने दूरदराज से आए श्रद्धालुओं के शिविर लगने से पहले ही उजाड़ डाले। बोरिया बिस्तर अभी ढंग से खुला भी न था कि सब भीग गया। मजबूरी में सैकड़ों लोग कल्पवास छोड़ गए। बहुतेरों को दूसरे स्थानों पर शरण लेनी पड़ी। रविवार तक मेले में सन्नाटा पसरा रहा। पूरे मेला क्षेत्र में बमुश्किल दर्जन भर स्थानों पर ही कथा प्रवचन हो रहा था। सोमवार को नजारा एकदम उलट था। महावीर मार्ग से लेकर मोरी मार्ग तक हर ओर कथाओं-प्रवचन का दौर शुरू हो चुका था।
मौसम शांत होने के चलते दोपहर ढलते ढलते मेला पूरे रौ में आ गया। रासलीला व रामलीला मंडलियों ने मंचन शुरू कर दिया। दुकानें लग गईं व भीड़ उमड़ पड़ी।
यह कल्पवास है, दशहरा का मेला नहीं जो पानी पड़े और उजड़ जाए. मेले से वह लोग गए हैं जो कल्पवास करने नहीं यहां घूमने फिरने की गरज से आते हैं। कल्पवासी अपना व्रत नहीं तोड़ते। चित्रकूट के स्वामी रामनरेश आचार्य पिछले 27 साल से माघ मेले में कल्पवास करने के लिए आ रहे हैं। वह मेले को 'उजड़ता हुआ' बताने वालों से सख्त नाराज हैं। अगर रामनरेश की बातों पर गौर कर मेले का मुआयना करें तो यह समझते देर नहीं लगती कि आस्था की गहरी जड़ों ने माघ मेले को संजीवनी दी है।
बीते सप्ताह के आखिरी तीन दिन की बारिश ने मेले में अव्यवस्था फैला दी। नरौरा से पानी आने और गंगा के किनारे कटान बढ़ने से अफरातफरी रही और मेले का अधिकांश हिस्सा बारिश में डूबा नजर आया। मेला प्रशासन ने मेले के जिन हिस्से में व्यवस्था को चाक चौबंद होने का दावा किया वहां बारिश ने इन कागजी दावों को लुगदी बना दिया। खाक चौक हो या फिर दंडी बाड़ा, सेक्टर एक से पांच तक सभी जगह बारिश का असर दिखा। इस अप्रत्याशित बरसात को आमजन ने मेले को उजड़ने का कारण बताया तो कल्पवासियों के लिए यह आस्था के वृक्ष को सींचने वाला अमृत साबित हुआ। बांध के पार ज्यों-ज्यों संगम के करीब जाएं तो कल्पवासियों का रेला दिखाई देता है, यहां भक्ति-भावना का प्रवाह है।
मंगा रहे पुआल, सूखी लकड़ियां - कल्पवासी अपनी नियमित दिनचर्या जारी रखे हुए हैं। जिन कल्पवासियों के साथ आए परिजन बारिश के चलते मेले से लौट गए थे, वह वापस आ रहे हैं। तमाम कल्पवासियों ने अपने परिजनों को घर से पुआल, सूखी लकड़ियां और खाने पीने की चीजें भी मंगा ली हैं। तमाम कल्पवासियों ने अपने टेंट को पानी से बचाने के लिए पोलीथिन आदि की भी व्यवस्था कर ली है।
संगम तट पर माघ महीना गुजारकर कल्पवास करने पहुंचे हजारों कल्पवासियों का मानना है कि वह घर से इस उम्मीद के साथ संगम पर नहीं पहुंचते हैं कि यहां सब कुछ तैयार मिलेगा। सतना के रामसुमेर को 15 साल से ज्यादा हो गए कल्पवास करते। वह बताते हैं कि कोई भी साल ऐसा नहीं है जब व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न न खड़ा किया गया हो, लेकिन मेले के अंत में हम सब हंसी खुशी घर पहुंचते हैं। कौशांबी की सरला देवी कहती हैं कि पिछले साल भी कल्पवास के अंतिम दिन बारिश के कारण थोड़ी परेशानी हुई थी पर हम घर पहुंचे तो यह याद ही नहीं रहा कि कल्पवास में कोई परेशानी हुई। जौनपुर के संतोष तिवारी का कहते हैं कि हम चाहते हैं कि मेले में पानी और शौचालय की व्यवस्था हो बस। इसके अलावा बाकी चीजें हमारे किसी काम की नहीं। उनकी बात का समर्थन करते हैं सुंदरराम, हमें चकर्ड प्लेट की क्या जरूरत। हम तो नंगे पांव पैदल जाते हैं संगम स्नान को। यहां तो गाड़ियों से चलने वालों को चाहिए चकर्ड प्लेट. और उनकी गाड़ी से सड़कों पर कीचड़ हो जाता है और रास्ते खराब हो जाते हैं। सुल्तानपुर के रामसमुझ यादव कहते हैं कि हम प्रशासन के सहारे कल्पवास करने नहीं आते, पर ईश्वर के आगे किसी की भी नहीं चलती।

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