Thursday 18 July 2013

फिल्म रिव्यूः सब्र से देखो तो दिल लूट लेगी लुटेरा

सोनाक्षी-रणवीरभूरे खुरदुरे रेडियो के बक्से से रेशमी शोख आवाज निकल रही है. गौर से सुनिए...ये एक गाना है, जिसके बोल हैं, अपने पर भरोसा है तो ये दांव लगा ले. लगा ले दांव लगा ले.
ये गाना लुटेरा फिल्म में कई बार आता है और हर
बार याद दिलाता है कि ये विक्रमादित्य मोटवाने की फिल्म है. वही जिन्होंने ‘उड़ान’ जैसी शानदार और संवेदनशील फिल्म बनाई थी. लुटेरा एक नए कैनवस पर कारीगरी है. इसमें बार-बार लगातार विक्रम का नया दांव और उस पर भरोसा दिखता है. इस पर कुछ बात करने से पहले वन लाइन वर्डिक्ट. फिल्म ट्रैजिक लव स्टोरी है. अच्छी है, पर लंबी और कई जगह धीमी है. तसल्ली से देख सकते हों, तो देखें, वर्ना आप अपना भी खाना खराब करेंगे और जो इत्मिनान से देख रहे हैं, उनका भी. और एक बात, जिन्हें ये भरम है कि सोनाक्षी सिन्हा की एकमात्र काबिलियत शत्रुघ्न सिन्हा की बेटी होना या साड़ी में लिपटा दिखना है. वे इस फिल्म को जरूर देखें. न देखें तो जजमेंट देना बंद कर दें.
बात करते हैं कहानी की
एक भील राजा था. जंगल में रहता था. अंग्रेज आए. कभी तीर मारे, कभी तलवार से काटा. मगर भील राजा कभी नहीं मरा. फिर दुश्मनों को पता चला कि राजा की जान एक तोते में है. मगर जंगल में तो हजारों तोते. कैसे पता चले. फिर एक सुंदर जासूस भेजा गया. राजा को उससे प्यार हो गया. एक दिन जासूस को तोते के बारे में पता चल गया. फिर क्या हुआ...आज के हिसाब से देखें तो जवाब सूझता है कि भील राजा शातिर भी था. उसने अपनी जान तोते से वापस निकाल ली थी और जासूस की जान तोते में रख दी थी, तो जैसे ही तोता मरा, जासूस भी मर गया. मगर जनाब ये तो गुजरे जमाने की कहानी है. तो इसमें राजा ही मरता है.
राजा की ये कहानी एक जमींदार सुनाते हैं, रायचौधरी नाम के. अपनी बेटी को. जिसका नाम है पाखी. जान से ज्यादा प्यार करते हैं वो उसे. तोता है वो उनकी. तो जमींदार हैं, पाखी है और आजादी के बाद दरकती संभलती दुनिया है. इसमें पहुंचता है वरुण. पुरातत्व विभाग का अफसर. अपने दोस्त गणेश के साथ. दोनों को जमींदार साहब के पुराने मंदिर के इर्द गिर्द की जमीन खोदनी है, कुछ पुराना छिपा है वहां. खुदाई चलती है. मिट्टी की भी और दिलों की भी. पाखी को वरुण से और कुछ हिचक के बाद वरुण को पाखी से प्यार हो जाता है. इस दौरान पीछे से बड़े गुलाम अली खान की आवाज में आजा बलम परदेसी बजता रहता है. मगर फिर एक दिन मिट्टी पूरी खुद जाती है. गड्ढा बन जाता है और दोनों का प्यार भी उसी में गिर गुम हो जाता है. पता चलता है कि दोनों और उनके कुछ और साथी दरअसल पुरानी मूर्तियों और एंटीक सामान की चोरी करने वाले गिरोह से थे. उन्होंने मूर्ति भी चुराई और बाप-बेटी का भरोसा भी.
सेकंड हाफ शुरू होता है. पाखी बीमार है. उसे टीबी हो गया है. उसके पापा मर चुके हैं. पुलिस वरुण गैंग के पीछे हैं. ये सब हो रहा है डलहौजी में. जहां पाखी की जिंदगी एक झड़ते पेड़ की पत्तियों जितनी बची है. तभी वहां वरुण आता है. और इसके बाद शोक, करुणा और आर्द्र्ता से भरी प्रेम कहानी गाढ़ी होती जाती है. त्वचा के नंब हो चुके हिस्से में सिहरी सी छुअन जैसा कुछ है यहां पर. और आखिर में वह होता है, जो किसी भी प्रेम को मजेदार नहीं, लेकिन यादगार जरूर बना देता है.
अब कुछ क्रिटिक वाले कमेंट
जैसा मैंने पहले कहा, सोनाक्षी ने बहुत अच्छी एक्टिंग की है. सेकंड हाफ में बिना मेकअप के वह वाकई बीमार और उसी दौरान प्यार के बुखार में भी तपती दिखती है. रणवीर का रोल इस तरह से रचा गया है कि उसकी टोन फर्स्ट हाफ में डाउन रहे. वह धीमी आवाज में बोलते हैं. सेकंड हाफ में उनके बोलने को बहुत कम है, बॉडी लैग्वेंज खूब बोलती है. बाकी लोग भी हैं. मगर ये फिल्म इन्हीं दोनों की है.
म्यूजिक भी फिल्म की तरह तसल्ली की मांग करता है. अमित त्रिवेदी आसपास की चीजों से कुछ उठाते हैं, उन्हें भाव की हवा में छोड़ देते हैं. वे हल्के कागज की तरह उड़ते हैं. और नमी से उनकी स्याही गीली होकर कुछ कुछ बनाती रहती है. फिल्म का म्यूजिक एक्टिंग और कहानी को कहीं भी रोकता नहीं और ये हिंदी फिल्मों के लिहाज से बेहद जरूरी और अच्छी चीज है.
कहानी ओ हेनरी की लास्ट लीफ से चवन्नी से भी कुछ कम इंस्पायर्ड है. बाकी जितनी है. वह कसी हुई है. मगर ये कसावट भागमभाग वाली नहीं है. कई सीन हटाए जा सकते थे, मगर ऐसा होते ही फिल्म का ईश्वर जो इश्क कहलाता है, मर जाता या कमजोर हो जाता. क्योंकि ये बारीक ब्यौरों से खूबसूरती पाता है. विक्रमादित्य ने अपनी काबिलियत के पौधे में एक नई पत्ती जोड़ ली है.
एक सीन पर और सुन लें कुछ
हर लव स्टोरी एक शरीर की तरह होती है. और शरीर का कोई एक हिस्सा होता है, जहां पर उंगली रखते ही, थरथराहट होने लगती है और सारे इंद्रिय बोध जाग जाते हैं. फिल्म मेकर इसे खोजने के लिए कभी लबों पर कैमरा टिकाते हैं, तो कभी आंखों पर. कभी बालों पर तो कभी गालों पर. लुटेरा में ये कांपता, सुखाता और उसी क्रम में जगाता पल आता है, जब पाखी और वरुण फुसफुसा कर बात करते हैं. वे बात करते हैं और आपके कान जगते हैं. मगर फिर कुछ टूटता है, और सब रुक जाता है. सेकंड हाफ में ये फिर शुरू होता है. इस बार सब पिक्चर फ्रेम सा सुंदर नहीं है. मगर इसीलिए ज्यादा असल और अपना है. इस बार जो फुसफुसाहटें होती हैं, तो आप समझते हैं कि ये घूरती चुप्पियां भी तो एक सुरीला शोर हैं. तोतों की चहक से उभरता शोर. जिनमें किसी न किसी की जान बसती है.

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