Wednesday, 3 July 2013

आसान नहीं तोते को आजाद करना





सर्वोच्च न्यायालय ने कोयला घोटाले में सीबीआई जांच की विश्वसनीयता पर सवाल उठाया था। इसके बाद, अदालत ने एक विस्तृत व गुणवत्तापूर्ण जांच की मांग की। साथ ही, यह कहा कि ‘सरकारी अधिकारियों के कहने पर रिपोर्ट की आत्मा बदल दी गई।.. यह एक दुखद गाथा है, जिसमें एक तोता है और उसके कई मालिक हैं। यह सुनिश्चित करना आवश्य
क है कि सीबीआई का कामकाज तमाम बाहरी दबावों से मुक्त हो.. अगर सीबीआई को स्वायत्त नहीं किया जाता है, तो हमें इसमें दखल देनी होगी।’  यह टिप्पणी भी थी कि सीबीआई एक ‘पिंजरे में बंद तोता है, जो अपने मालिक की आवाज बोलता है।’ इसके कामकाज के संदर्भ में बताया गया कि ‘सीबीआई का काम यह नहीं कि वह सरकारी अधिकारियों से बातचीत करे, बल्कि वह सत्य की तलाश के लिए पड़ताल करे। ..सीबीआई

को यह मालूम होना चाहिए कि सरकार व उनके अधिकारियों की खींचतान और दबावों के बावजूद वह कैसे अपने को खड़ा रखे।’ संयोगवश, जिस सीबीआई, यानी केंद्रीय जांच ब्यूरो का हम जिक्र कर रहे हैं, उसका यह नाम एक विशेष आदेश के जरिये एक अप्रैल, 1963 को पड़ा। कानूनी तौर पर यह संस्था आज भी विशेष पुलिस संस्थापन (एसपीई) है, जिसकी स्थापना 1941 में हुई थी। साफ है, कानून की शब्दावली में सीबीआई नाम की कोई चीज नहीं है। विशेष पुलिस संस्थापन कानून केंद्र शासित प्रदेशों के पुलिस अधिकारियों के साथ विशेष पुलिस संस्थापन, यानी सीबीआई के सदस्यों को शक्ति, कर्तव्य, विशेषाधिकार व उत्तरदायित्व प्रदान करता है। केंद्र सरकार केंद्र शासित प्रदेशों के सिवाय किसी भी क्षेत्र में जांच-पड़ताल के लिए सीबीआई की शक्तियों और अधिकारों का इस्तेमाल कर सकती है और बढ़ा सकती है।

लेकिन इसमें संबंधित राज्य सरकार की सहमति होनी चाहिए। पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में सरकार ने उन प्रस्तावों पर अपनी सहमति दे दी, जो सीबीआई की शक्तियां बढ़ाने के लिए एक मंत्री समूह ने सुझाए थे। इनमें शामिल है- सीबीआई निदेशक की नियुक्ति कॉलेजियम के जरिये हो, इस संस्था को और अधिक वित्तीय शक्तियां दी जाएं, किसी भी तरह के पक्षपात से बचाने के लिए सेवानिवृत्त जज जांच की निगरानी करें, आदि। मंत्री समूह के अध्यक्ष ने यह साफ किया है कि केंद्रीय सतर्कता आयुक्त सीबीआई द्वारा भ्रष्टाचार मामलों की जांच का निरीक्षण जारी रखेंगे। ऐसे में, सेवानिवृत्त जजों को क्या जिम्मेदारी दी जाएगी, इस संबंध में अभी विस्तृत जानकारी नहीं है। शायद, यह रवैया दर्शाता है कि केंद्रीय सतर्कता आयुक्त में सेवानिवृत्त नौकरशाहों के प्रति सरकार का लगाव है। कॉलेजियम द्वारा सीबीआई निदेशक के चयन पर प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता विपक्ष और प्रधान न्यायाधीश की सहमति हो, तीन सेवानिवृत्त जजों का दल राजनीतिक हस्तक्षेप को नियंत्रित करे और डायरेक्टर ऑफ प्रॉजीक्यूशन सीधे सीबीआई निदेशक को रिपोर्ट करे- इन तीन सुझावों के साथ अन्य संस्तुतियां भी स्थायी समिति के पास भेजी जाएंगी, जिसकी अनुमति के बाद इन प्रस्तावों को संसद में लाया जाएगा।

लेकिन जांच के क्षेत्र में आने वाली बाधाओं को दूर करने से जुड़े मुद्दे अस्पष्ट ही हैं। मसलन, वाजपेयी सरकार द्वारा पारित केंद्रीय सतर्कता आयुक्त अधिनियम, 2004 कहता है कि संयुक्त सचिव और इससे ऊपर के अधिकारियों से पूछताछ के पहले सरकार की पूर्वानुमति आवश्यक है। सीबीआई ने अब तक पूर्व केंद्रीय मंत्री संतोष बागरोदिया और डी नारायण राव और राज्य सभा में कांग्रेस सांसद विजय दर्डा से सवाल किए। पूर्व राज्य मंत्री बागरोदिया से इसलिए जवाब-तलब हुआ कि वह संप्रग-एक में कोयला मंत्रालय का अहम हिस्सा थे। लेकिन नौकरशाही का क्या हुआ? वह अपनी रक्षा तो कर ही रही है। सूचना के अधिकार के जरिये जुटाई गई जानकारी के मुताबिक, जनवरी 2008 से लेकर दिसंबर 2009 तक में 23 शीर्ष सरकारी अधिकारियों पर संस्था ने भ्रष्टाचार के मामले पाए हैं। इनमें से अधिकतर संयुक्त सचिव के स्तर के हैं, परंतु इन पर मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं मिली। इसके अलावा, कार्मिक राज्य मंत्री ने राज्यसभा में हाल ही में बताया था कि कार्यकारिणी शाखा में अधिकतम 690 रिक्तियां हैं और कानूनी विभाग में 108 सीटें खाली हैं।

एक सितंबर, 2011 तक सीबीआई में संयुक्त निदेशक के स्तर पर चार पद खाली थे और डीआईजी और एसएसपी के स्तर पर कोई पद खाली नहीं था। लेकिन निचले स्तरों पर स्थिति बदली हुई थी। एसपी (38), डिप्टी एसपी (131), इंस्पेक्टर (206) और एसआई (131) सीटें खाली थीं। साफ तौर पर यह संस्था कर्मचारियों की कमी से जूझ रही है। इसी तरह, सीबीआई में न्यायिक अधिकारियों की भी कमी है। हालांकि, तीन वर्षीय अनुबंध पर विशेष वकील और विशेष सहयोगी वकील की नियुक्ति से भरपायी की कोशिश हुई, फिर भी 33 फीसदी सीटें खाली हैं, जिनसे अदालत में इस संस्था के प्रदर्शन पर असर पड़ता है। इन मुद्दों को मंत्री समूह ने बिना छुए ही छोड़ दिया। कोलगेट मामले में ही सरकार ने तत्कालीन कोयला सचिव से पूछताछ की अनुमति देने से शुरू में इनकार कर दिया था, लेकिन तीन महीने बाद सरकार नरम पड़ी। ध्यान रहे कि जैन हवाला केस, 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया था कि भ्रष्टाचार किसी भी नौकरशाह के काम का हिस्सा नहीं है। लेकिन स्थिति तेजी से बदली है और बड़े-बड़े घोटाले हो रहे हैं।

रिश्वत व भ्रष्टाचार सूचकांक में 100 में से 34 अंकों के साथ भारत दुनिया का 87वां सबसे भ्रष्ट देश है। बजाय इसके कि भ्रष्टाचार व भ्रष्टों के विरुद्ध कड़ाई से मुकाबला हो, मई 2013 में कैबिनेट ने एक प्रस्ताव पास कर सेवानिवृत्त अधिकारियों को भी कवच प्रदान किया है। सीबीआई के दुरुपयोग के मामले में देखें, तो सरकार सीबीआई निदेशक को ऐसा करो या वैसा करो खुलकर नहीं कहती है, बल्कि कानूनी माध्यमों से सीबीआई से चालाकी पूर्वक काम निकालती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि सरकार यह तय करती है कि क्या यह मामला ऊपरी अदालत में ले जाने लायक है और अगर हां, तो कौन इस मामले का प्रतिनिधित्व करेगा और उसे इसके लिए कितना शुल्क दिया जाएगा। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, मंत्री समूह और कैबिनेट के फैसले से यह साफ नहीं होता है कि क्या अब सीबीआई अपने दम पर वकील रख सकती है। ऐसे में, यह महत्वपूर्ण हो गया है कि सीबीआई की कार्यप्रणाली को विश्वसनीयता प्रदान की जाए। इसे कानूनी आधार देने की जरूरत है। अन्यथा, सीबीआई के दुरुपयोग से जुड़े संदेह बने रहेंगे।

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