Monday 19 August 2013

बासी कढ़ी के इस उबाल से बचिए

Krishanarao

यह 15 अगस्त, 2013 की शाम है। आजादी का जश्न गुजर चुका है। टेलीविजन पर मनमोहन बनाम मोदी की बहस जोरशोर से जारी है। यह लोकतंत्र बनाम भीड़तंत्र की वह बासी कढ़ी है, जिसका हर उबाल बरसों से हिन्दुस्तानियों का मन खट्टा करता रहा है। सवाल उठता है, हमारे राजनेता क्यों एक जागृत कौम को वैचारिक तौर पर कुंद रखना चाहते हैं? उनकी नजर में सत्तारथ का रास्ता क्या सिर्फ जनता की जहालत ही हमवार कर सकती है? अगर वे जाहिलों की जम्हूरियत के सरताज बन भी जाएंगे, तो उससे देश का कितना भला होगा? सवालों की इस अंधी सुरंग में रास्ता टटोलते हुए दिमाग के बंद कोनों में कुछ बिंब उभरते हैं। गए तीन दशकों में गुजरी ये घटनाएं हादसा हैं, तो भविष्य के लिए सबक भी। आपसे उनको शेयर करता हूं। वह नवंबर, 1984 का पहला हफ्ता था। दोपहर की मरियल धूप शाम होने से पहले ही दम तोड़ चली थी। मैं किसी काम से इलाहाबाद में लीडर रोड से गुजर रहा था। जानसेनगंज चौराहे के पास एक अजीब दृश्य देखा। एक सिख अफसर अपने कुछ बावर्दी सैनिकों के साथ जली हुई दुकानें देख रहा था। सभी के हाथों में ऑटोमेटिक हथियार थे और आंखों में करुणा-क्रोध मिश्रित अजीब से भाव। लगता था कि वे कभी भी अपनी बंदूकों के मुंह सड़क पर गुजरते लोगों की ओर कर देंगे। अजीब सिहरन शरीर में दौड़ गई थी, मैंने स्कूटर की गति बढ़ा दी थी।
दो-तीन दिन पहले सकते और शर्म के साथ देखा था कि किस तरह लोग उल्लासपूर्वक सिखों की दुकानें लूट और जला रहे थे। कैसी भीड़ थी? बूढ़े-बच्चे, सब उन्माद से सराबोर हो रहे थे। पुलिस उन्हें रोकने में नाकाम थी। मुझे तो यह लग रहा था कि उसका अपरोक्ष समर्थन दंगाइयों के साथ है। उस समय इलाहाबाद के जिलाधिकारी सिख थे, पर वह भी बवाल रोकने में नाकाम रहे। साथियों के साथ उन रूह कंपा देनेवाली घटनाओं को कवर करते समय मैंने सोचा था कि शायद यह सब 1947 का प्रतिरूप है। तब भी ऐसा ही हुआ होगा, जब लाखों लोग देश के विभाजन के दौरान दरबदर हुए थे। हमने अपनी रिपोर्टों में यह सवाल उठाया था कि देश को दो टुकड़ों में बांटना भले ही ऐतिहासिक भूल रही हो, पर हम क्या अभी तक एक समझ संपन्न कौम नहीं बन सके हैं? हमारे अंदर आज भी वह वहशी बैठा हुआ है, जिसे आजादी के पुरजवान होने के साथ-साथ खत्म हो जाना चाहिए था? यह सवाल भी हमने उठाया था कि इस शहर को प्रयागराज इसलिए कहते हैं, क्योंकि यहां देश की दो महानतम नदियों का मिलन होता है।
बहुसंख्यकों की दर्जनों धार्मिक परंपराओं ने यहीं आकार पाया है। जो लोग आज लुटे-पिटे हैं, वे विभाजन के समय इस उम्मीद के साथ इस शहर में आए थे कि उनके साथ दोबारा ऐसा नहीं होगा। इस शहर के बाशिंदों की जिम्मेदारी है कि दोबारा ऐसा होने से रोकें और आगे कभी आपस में न टकराएं। यहां से भाईचारे के अखंड कुंभ का पैगाम समूचे देश में गूंजे। अफसोस! ऐसा नहीं हुआ। बाद में 1990 के दशक के शुरुआती दिनों में तो ऐसा लगा, जैसे देश ही बंट जाएगा। तब मैं आगरा में रहता था। इस शहर में कभी दंगे नहीं होते थे। अकबर ने सुलहकुल की नींव पड़ोस में स्थित फतेहपुर सीकरी में रखी थी, पर अयोध्या के हादसे के बाद यह शहर भी जल उठा था। सिर्फ आगरा ही क्यों, देश के तमाम शहर सांप्रदायिकता की आग में झुलस रहे थे। एक डर पनपने लगा था कि मुल्क के सबसे बड़े दो समुदायों में पनप रही दरार कहीं इतनी चौड़ी न हो जाए कि उसे फिर पाटा ही न जा सके। कुछ निराशावादी हिन्दुस्तान की तुलना फलस्तीन से करने लगे थे। पर नहीं! हिंदी हैं हम वतन है, हिन्दोस्तां हमारा की तर्ज पर हम फिर उठ खड़े हुए। उसके बाद भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई में एनडीए की सरकार आई और गई, पर राष्ट्रीय स्तर पर वैसी सांप्रदायिकता कभी नहीं पनपी। कुछ हादसे होते रहे, लेकिन लड़खड़ाकर संभल जाने की प्रवृत्ति हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी शक्ति रही है।
भरोसा न हो, तो पिछले अगस्त की घटनाओं पर गौर फरमाइए। सोशल मीडिया की सहायता से कुछ उपद्रवियों ने दक्षिण भारत के दो प्रमुख शहरों में उत्तर-पूर्वी भारतीयों को ऐसा आतंकित किया कि वे बड़ी संख्या में पलायन करने को मजबूर हो गए। तब भी यह सवाल उठा कि एक देश के नाते हम कितने मजबूत हुए हैं? अगर आजादी के 65 साल बाद भी लोगों को सिर बचाने के लिए अपने मूल स्थान की ओर लौटना पड़ता है, तो यह कितना शर्मनाक है? पर महीना बीतते-बीतते सब कुछ सामान्य हो गया। यही नहीं, हमारे आपसी सहयोग और सामंजस्य की मिसाल देखनी हो, तो किसी भी बड़ी आतंकवादी घटना पर गौर फरमाएं। हर बड़े हमले के बाद हमारे बीच अलगाव के बीज बोनेवाले उम्मीद करते हैं कि पूरे देश में लोग आपस में लड़ मरेंगे, पर ऐसा आज तक नहीं हुआ। यही वह मुकाम है, जहां से मेरी चिंता शुरू होती है। हमारे राजनेता आज भी सांप्रदायिक कार्ड खेलते हैं। अंग्रेज चले गए, पर उनकी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति आज तक कायम है। जब ये पंक्तियां लिख रहा हूं, तो जम्मू-कश्मीर के आठ शहर सांप्रदायिक तनाव की यंत्रणा भुगत रहे हैं। बिहार के नवादा को भी यह छुतहा रोग दुख दे रहा है। उधर पूरे देश में जश्न-ए-आजादी मनाया जा रहा है। क्या आपको नहीं लगता कि भारत जैसे विशाल देश में भाषा, जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर राजनीति करने वालों के लिए भी कड़े और कारगर कानून होने चाहिए? अगर ऐसा होता है, तो बहुत-से दलों का अस्तित्व ही मिट जाएगा।
आप याद कर सकते हैं, हैदराबाद के एक नौजवान नेता ने गाय के लिए ऐसा बोला कि लाखों लोग तिलमिला गए। ठाकरे बंधुओं की समूची सियासत ही इस पर चलती है। बहुत से दल सेकुलरिज्म के नाम पर सांप्रदायिकता का पत्ता फेंटते हैं। कष्ट इस बात का है कि आजादी की वर्षगांठ के दिन भी हमारे ज्यादातर सियासी सरदारों ने इसके खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश नहीं की। उल्टे वे विभाजन की संकरी रेखाओं को चौड़ा करने में जुटे रहे। वजह? चुनाव सामने है। आप पिछले हफ्ते की घटनाओं पर गौर फरमाएं। जम्मू संभाग में दंगा फैला और तीन लोगों की जानें गईं। मरने वाले कौन थे? वे हमारी मिट्टी की उपज थे। वे हिन्दुस्तानी थे, पर उमर अब्दुल्ला ने अपने ट्वीट के जरिये यह साबित करने की कोशिश की कि मरने वालों में एक वहां के अल्पसंख्यक समुदाय का है और बाकी दो बहुसंख्यक वर्ग से आते थे। ध्यान रखने की बात है कि जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यक की परिभाषा समूचे देश से अलग है। 15 अगस्त के जलसे में उन्होंने इशारों ही इशारों में अलगाव के सुर छेड़े। अन्य कई नेताओं ने इस मौके का लाभ अपनी खुन्नस निकालने के लिए उठाया। यह शर्मनाक है। अपने जन्मदिन पर आत्मालोचन, हमारी परंपरा है। सवाल उठता है, देश के उदय उत्सव पर ऐसा क्यों नहीं?

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