Friday 30 August 2013

Movie Review: अन्ना आंदोलन का फिल्मी वर्जन निकली 'सत्याग्रह', कमजोर कहानी के कुंए में डूब गई



फिल्म सत्याग्रह का एक सीन
फिल्म रिव्यू: सत्याग्रह
डायरेक्टर: प्रकाश झा
एक्टर: अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, मनोज वाजपेयी, करीना कपूर खान, अर्जुन रामपाल, अमृता राव
ड्यूरेशन: 152 मिनट
पांच में से दो स्टार (**)1. 'सत्याग्रह' गांधी का ईजाद किया हुआ शब्द है, एक हथियार है, जिसमें सही बात का आग्रह अहिंसक ढंग से किया जाता है. सत्य का आग्रह. सिनेमा के सत्य की बात करें तो ये तीन बंदरों में बंटा होता है. कहानी, एक्टिंग और डायरेक्शन. प्रकाश झा के सत्याग्रह में दो बंदर कहानी और डायरेक्शन तो निरे झूठे निकले. एक्टिंग वाला कुछेक संभला रहा क्योंकि वहां अमिताभ बच्चन, मनोज वाजपेयी और कुछेक हिस्सों में अजय देवगन थे.
फिल्म सत्याग्रह अन्ना आंदोलन, जनलोकपाल बिल, अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी, इंजीनियर सत्येंद्र दुबे के मर्डर और गांधी के अंतिम दिनों को मिलकर बनी है. इसके बीच में प्रकाश झा ने जबरन नाटकीयता, प्रेम, आइटम नंबर और दूसरी उनके हिसाब से जरूरी और भारी चीजें ठूंसी हैं. इन सबके चलते फिल्म न तो वास्तविक रह पाती है और न ही मनोरंजक. याद रहता है तो बस यह कि ये वही प्रकाश झा हैं जिन्होंने गंगाजल, अपहरण जैसी वास्तविक और राजनीति जैसी इंस्पायर्ड फिल्में बनाईं.
2. प्रकाश झा ने शुरुआत की थी दामुल से. हम आप में से बहुत कम ने ही इस फिल्म को देखा होगा, मगर इसकी तारीफ खूब पढ़ी गई. अब लौटते हैं नब्बे के दशक में, जहां दिल क्या करे जैसी कुछ रोमांटिक ट्राएंगल में हाथ जलाने के बाद प्रकाश अपनी जमीन बिहार लौटे और भागलपुर के आंखफोड़वा कांड पर आधारित गंगाजल बनाई. फिर बिहार के ही संगठित अपहरण उद्योग पर अपहरण फिल्म बनाई. ये प्रकाश झा का नया सिनेमा था, जिसमें वास्तवकि घटनाएं भी थीं और सघन कहानी के दम पर बुनी नाटकीयता भी. फिर आई राजनीति. महाभारत का मॉर्डन वर्जन. ये फिल्म उनकी अब तक की सबसे सबल फिल्म रही. इसमें मनोज वाजपेयी, रणबीर कपूर, नाना पाटेकर औऱ अर्जुन रामपाल की एक्टिंग थी, लोगों को आज की राजनीति के कई अक्स नजर आए. फिर शुरू हुआ फिसलन भरा ट्रैक. इसमें आईं आरक्षण, चक्रव्यूह और अब सत्याग्रह. देश के मौजूदा मुद्दों को इतने सतही ढंग से इनमें रखा गया कि कुछ खुर्राट क्रिटीक जो सिनेमा पर चालूपने का आरोप मढ़ते हैं, उन्हें नये नये उदाहरण मिल गए.
3. फिल्म अपने हर मोड़ पर किसी बीते हुए मगर याद रह गए ऐतिहासिक वाकये की याद तो दिलाती है, मगर उसकी पेचीदगी या माहौल को जिंदा नहीं कर पाती. सत्याग्रह कहानी है एक आदर्शवादी मास्टर द्वारका आनंद (बच्चन) की, जो अंबिकापुर कस्बे में रहते हैं औऱ पढ़ाते हैं. उनका बेटा निखिल आनंद बड़ी डिग्री के बाद भी हाई वे अथॉरिटी में ईमानदारी से काम कर अपने कस्बे के लिए कुछ करना चाहता है. वहीं उसका दोस्त मानव राघवेंद्र (देवगन) उस बड़ी डिग्री को कॉरपोरेट की दुनिया में और बड़ा करना चाहता है. फिर निखिल के साथ वही होता है जो असल जिंदगी में 2003 में बिहार में इंजीनियर सत्येंद्र दुबे के साथ हुआ था, जब वह हाई वे अथॉरिटी के ठेकेदारों को ठेंगा दिखाकर क्वालिटी काम पर अड़े थे.
4. इसके बाद फिल्म दो और किरदारों को स्थापित करती है. 2जी स्पैक्ट्रम का हिंट देता वाकया और तेजी से आगे बढ़ने को तैयार मानव. पाले के दूसरी तरफ तेज तर्रार रिपोर्टर टीवी रिपोर्टर यास्मीन खान (करीना) जिनकी एंट्री एक पावर ब्रोकर को स्टिंग में एक्सपोज करने से होती है. हालांकि इसे दिखाने में चक्कर में डायरेक्टर झा की कल्पनाशीलता भी एक्सपोज हो जाती है.
5. निखिल की मौत के बाद उसका दोस्त मानव अंबिकापुर पहुंचता है. हालात कुछ ऐसे बन जाते हैं कि सिस्टम को आईना दिखाते मास्टर जी कस्बे के गांधी हो गए हैं, जेल में हैं और उन्हें छुड़ाने के लिए आंदोलन शुरू हो चुका है. ये आंदोलन स्थानीय युवा नेता अर्जुन (अर्जुन रामपाल) के अलावा फेसबुक और ट्विटर के सहारे खड़ा होता है. अब ये समझ नहीं आता कि एक पिछड़े कस्बे अंबिकापुर में इसके सहारे आंदोलन का शुरुआती दौर कैसे सफल होता है. बहरहाल, अन्ना आंदोलन से कच्ची प्रेरणा पाते हुए कहानी आगे बढ़ती है और इंटरवल तक असल चेहरे साफ होने लगते हैं.
6. अब मंच है, व्रत है, हिंसा है, बातचीत के भ्रम में उलझाती सरकार के कुछ नुमाइंदे हैं और इनकी अगुवाई कर रहा है लोकल इलाके का गंठबंधन सरकार को अपने कुछ विधायकों के दम पर नचाता मंत्री बलराम सिंह (मनोज वाजपेयी). बातचीत, दमन और रणनीतिक आपाधापी चलती है और आखिर में फिल्म गांधी जी के बंगाल के नोआखली दंगों को शांत कराते किचिंत विविश दिनों और उनके अंत को याद दिलाकर अपने मुकाम अन्ना आंदोलन मुकाम पर पहुंचती है.
7. ये तो रही फिल्म की कहानी की बात, मगर इस कॉकटेल में बस एलिमेंट ही ज्यादा हैं, जो एक कसावट होनी चाहिए. एक धागा जिसके इर्द गिर्द सब पिरो दिया गया हो. वह गायब सा है. ऐसा लग रहा था जैसे निर्देशक और लेखक अंजुम राजाबली को एक किस्म की हड़बड़ी हो एक ही फिल्म में सब कुछ कह देने की. और फिर इस फेर में शिराजा बिखर गया.
8. फिल्म की गंभीरता और नाटकीयता को कुछ घटिया मगर रेग्युलर हो चुके फॉर्मुले भी खत्म करते हैं. हीरो की एंट्री या किसी गड़बड़ डील के समय देसी अंदाज का आइटम सॉन्ग. फिर हीरो हीरोइन के बीच एक लव सॉन्ग, जो कत्थई सी इमारतों और स्लेटी सी रोशनी के बीच फिल्माया जाएगा, बैकग्राउंड में सेमी क्लासिक अंदाज में एक भारी आवाज पिया, जिया जैसा कुछ विलंबित लय में गाएगी और इसके अंत में प्रेम निथर कर दुनियावी हो जाएगा बिस्तर पर. और क्लाइमेक्स और उससे पहले भी जब-तब लंबे भाषण होंगे, क्योंकि कथानक से पर्याप्त ज्ञान नहीं पिलाया जा चुका था.
9. सत्याग्रह में अमिताभ बच्चन और मनोज वाजपेयी की शानदार एक्टिंग हैं. बच्चन करुणा, संकल्प और आग्रह को नए अर्थ देते हैं. मनोज तो जैसे हर बार किरदार की खाल में एक टोंका कर बस भीतर बिला जाते हैं. अजय देवगन एक्टर अच्छे हैं, मगर यहां उनका रोल बहुत तय पैटर्न पर चला. अर्जुन रामपाल बिला वजह खर्च हुए. अब सोचिए जरा यही अर्जुन फिल्म राजनीति में देश के एक अहंकारी ताकतवर युवा नेता की याद दिलाते अच्छे लगे थे. मगर अंबिकापुर के युवा नेता के रूप में वह बहुत नकली लगे हैं. अमृता राव सत्यनारायण की कथा से निकली कोई पात्र लगती थीं, पहले की फिल्मों में भी और यहां भी. करीना कपूर कैमरे के सामने इस तरह पेश आ रही थीं, जैसे वह किसी एंटरटेनमेंट शो को पेश कर रही हों, राजनैतिक उठापटक को नहीं. फिर कुछेक बार तो लगा कि जैसे आंदोलन की कोई लड़की रिपोर्टर बनकर आ गई हो और सारी वस्तुनिष्ठता धरी रह गई.
10. फिल्म सत्याग्रह कुछेक जगहों, मोड़ों को छोड़कर निराश ही करती है. गांधी मूर्ति के सामने मारकाट और बच्चों के सामने ढहते बूढ़े भारत जैसे प्रतीक इसे संभाल नहीं पाते हैं. कहानी पब्लिक को पप्पू बनाना चाहती है. यास्मीन खान हिंदी चैनल की रिपोर्टर नजर आती हैं. फिर जनसत्याग्रह आंदोलन की एक नेता बन मंच पर पहुंचती हैं और पोस्टर में जगह पाती हैं. फिर झगड़ा होता है तो वापस उसी न्यूज चैनल की गाड़ी और क्रू पर सवार हो जाती हैं.


और भी... http://aajtak.intoday.in/story/film-review-satyagraha-looked-like-a-filmy-version-of-anna-hazares-protest-1-740480.html

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