Tuesday 20 August 2013

पुरुषों की दुनिया में राखी का त्योहार


रक्षा बंधन को डोगरी में ‘रक्खड़ी’ कहते हैं। ‘रक्खड़ी’ के इस त्योहार का हम सबको बहुत इंतजार रहता था, इसलिए भी कि भाई को राखी बांधने के बाद पैसे मिलेंगे। राखी बांधने के बाद अगर उस वक्त अठन्नी भी मिल जाती, तो लगता था कि इस पैसे से मैं पूरी दुनिया खरीद लूंगी। यह सन सैंतालीस-अड़तालीस की बात है। तब मैं सात-आठ बरस की थी। मेरे ताऊजी के तीन लड़के थे और मेरे अपने दो छोटे भाई थे। रक्खड़ी के दिन हर बहन के लिए भाई को राखी बांधना जरूरी होता था। मेरा भाई आशुतोष मुझसे एक साल छोटा था। बचपन में वह बहुत शरारती था। सुबह-सुबह तैयार होकर मैं राखी बांधने के लिए उसके पीछे-पीछे भागती थी, लेकिन कभी वह मेरी किताबों का बैग लेकर भाग जाता, तो कभी घर के किसी कोने में जाकर छिप जाता था। उसे ढूंढ़ते-ढूंढ़ते जब मैं परेशान हो जाती, तब वह कहता कि तुम पहले मुझे आठ आने दो, तब मैं तुमसे राखी बंधवाऊंगा। काफी मान-मनौव्वल करने के बाद चार आने लेकर वह राखी बंधवाने को राजी होता था। तब घूस का बाजार इतना बड़ा नहीं था। राखी को लेकर कुछ इसी तरह का वाकया महादेवी वर्मा ने मुझे बताया था। निराला जी और महादेवी वर्मा के बीच भाई-बहन का रिश्ता था। रक्षा बंधन के त्योहार के दिन निराला जी महादेवी वर्मा के घर आते थे और उनसे कहते थे, ‘तुम्हारे पास दो रुपये हैं?’ महादेवी जी पूछती थीं, ‘क्यों?’ तो वह कहते, ‘एक रुपया रिक्शे वाले को देना है और एक तुम्हें राखी बंधवाने के।’ राखी का यह त्योहार मेरे लिए इसलिए महत्वपूर्ण है कि अपने भाइयों के अलावा इस त्योहार ने मुझे कुछ ऐसे लोगों के करीब ला दिया, जिन्हें मैं तब तक राखी बांधती रही, जब तक वे जिंदा रहे। उनमें से एक थे लक्ष्मीमल्ल सिंघवी। वह हर साल रक्षा बंधन के दिन राखी बंधवाने मेरे घर आते थे।

डॉक्टर धर्मवीर भारती को भी मैं राखी बांधती थी। पहले हम मुंबई में रहते थे। उनकी पत्नी पुष्पा भारती जी से अक्सर मिलना-जुलना होता था। एक दिन पुष्पा जी ने कहा, ‘तुम अपने भाई को राखी क्यों नहीं बांधती?’ उसके बाद मैं भारती जी को राखी बांधने लगी। मुंबई में मेरी बेटी की तबीयत ज्यादा खराब रहने लगी, तो डॉक्टरों ने हमें दिल्ली शिफ्ट करने की सलाह दी। जब हम दिल्ली आ गए, तब भी भारती जी को राखी बांधने मैं मुंबई जाती थी।  आज डॉक्टर भारती नहीं हैं, लेकिन उनकी पत्नी ने हमेशा हमारे स्नेहिल रिश्ते का मान रखा है। मिलते-जुलते या फोन पर बातचीत करते हुए जब कभी पुष्पाजी मेरे ऊपर रौब जमाने की कोशिश करती हैं, तो मैं उन्हें याद दिला देती हूं कि आप यह मत भूलिए कि मैं आपकी ननद हूं और आप मेरी भाभी, और भाभी-ननद के रिश्ते में ननद को हमेशा तरजीह दी जाती है। इसके बाद वह चुप हो जाती हैं और फिर मैं उन पर हावी हो जाती हूं। लेकिन यह उनका बड़प्पन है।

राखी से जुड़ा एक और वाकया मुझे अक्सर याद आता है। जब मैं कोई सतरह-अठारह साल की थी, मुझे आंत की टीबी हो गई थी। मैं जम्मू के एक अस्पताल में भर्ती थी। मेरा इलाज चल रहा था। रक्षा बंधन के दिन अस्पताल के बिस्तर पर लेटी हुई मैं एक किताब पढ़ रही थी और मेरी आंखों से आंसू निकल रहे थे। तभी उस अस्पताल के सुपरिटेंडेंट वार्ड का मुआयना करने निकले। वह किसी मरीज से उसका हालचाल भी पूछ रहे थे। सुपरिटेंडेंट साहब मेरे बिस्तर के पास भी आए। मुझे रोता देखकर उन्होंने पूछा कि तुम क्यों रो रही हो? जब मैंने कहा कि आज रक्षा बंधन है और मुझे अपने भाइयों की याद आ रही है। उन्होंने झट से अपनी कलाई आगे कर दी। मैंने किताब के धागे तोड़कर उन्हें राखी बांध दी। उसके बाद तो मैं जब तक अस्पताल में रही, वहां मेरा ही रौब चलता था। रक्षा बंधन के त्योहार से जुड़े ऐसे बहुत सारे वाकये हैं, जिन्हें याद करके आज मैं भावुक हो जाती हूं। पुरुष सत्तात्मक भारतीय समाज में इस त्योहार का इसलिए भी महत्व है कि पहले बहू को शादी के बाद मायके नहीं जाने दिया जाता था। ससुराल में उन्हें बहुत सारे काम करने होते थे। तब लड़कियों को रक्षा बंधन का इंतजार रहता था।

अपने भाइयों को राखी बांधने के बहाने उनमें मायके जाने की ललक होती थी। इसी बहाने वे अपनी मां, पिता और भाइयों से मिलती-जुलती थीं। उनका मन बहलाव होता था। उन दिनों खासतौर पर छोटी बहनें अपने भाइयों को राखी बांधने के लिए मायके जाती थीं। बहन जब बड़ी होती थी, तो छोटा भाई राखी बंधवाने के लिए बहनों के यहां आता था। उस दिन घर में अच्छे-अच्छे पकवान बनते थे और बहन बड़े प्यार से अपने भाई को खाना खिलाती थी। उससे अपने मायके का हालचाल लेती थी। कुछ संपन्न घरों में राखी बंधवाने आए भाई को कपड़ा भी दिया जाता था। पहले रक्षा बंधन के त्योहार में उत्साह ज्यादा होता था। तब यह मायने नहीं रखता था कि कौन क्या उपहार देता है। लेकिन भाई-बहन के इस भावनात्मक त्योहार में आज दिखावा ज्यादा हो गया है।

इस त्योहार का अपनापन धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। पैसे के बीच में आ जाने की वजह से इस त्योहार का अब वह पैगाम नहीं रहा। अब यह महज रस्म बनकर रह गया है। इस दिन बहन और भाई एक-दूसरे के लिए महंगे से महंगे सामान लेकर आते हैं। पिछले कुछ वर्षों में यह बदलाव आया है। सच तो यह है कि जब तक हमारे ये तीज, त्योहार और लोकगीत रहेंगे, तभी तक हमारी संस्कृति की विशिष्टता रहेगी। राखी का यह त्योहार हमें संदेश देता है कि हर भाई को लगना चाहिए कि उसकी बहन उसकी जिम्मेदारी है। आज रक्षा बंधन के दिन मैं यही कामना करती हूं कि लड़ाई-झगड़े के बीच में कोई किसी की मां या बहन को गाली न दे।

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