Monday 26 August 2013

ये मुंबई ऐसी तो न थी

उत्तर प्रदेश: विहिप का जोरदार प्रदर्शन... पुलिस के छूटे पसीनेएक शहर किस तरह आपकी रूह में रच-बसकर आपको अपनी तरह बना लेता है, यह मैंने मुंबई में 15 साल बिताने के बाद जाना था। छोटे शहर से आई थी मुंबई और पहली बार जब इस विराट महानगर को देखा, तो लगा कि यहां एक दिन भी गुजर करना मुमकिन नहीं। अपरंपार भीड़, उमस और जिंदगी को हाथ से न छूटने देने की दौड़..।  यह विराटता लेकिन डराती नहीं, यह आपको अपनी बांहें फैलाए निमंत्रण देती थी। भीड़ का अनुशासन, उमस के बीच चली ठंडी पुरवाई और दौड़ में एक जीवंतता—मुंबई के बाशिंदों में एक किस्म का जोश भर देती थी।
राजधानी दिल्ली में सालों बिताने के बाद आज भी जब कभी आधी रात एक झोंके से नींद खुलती है, तो अपने आपको दादर स्टेशन के भीड़ भरे एक कोने में लोकल ट्रेन न छूटने की जद्दोजहद में भागती पाती हूं। बारिशों में मन नरीमन पॉईंट के सागर किनारे चट्टानों में पागल पवन बन उड़ने लगता है। आधी रात को जब अपने शहर और गलियों का सन्नाटा भांय-भांय करने लगता है, तो याद आती है मुंबई की वो कभी न खत्म होने वाली रातें, जहां किसी भी पहर एक युवा लड़की पूरी आजादी से अपने होने के एहसास का जश्न मनाती थी। ये थी मेरी मुंबई, जिसे 1993 में मैंने घायल और अपना चोला बदलते देखा। लेकिन अगले ही दिन तमाम मुंबईकर अपने-अपने काम पर पहुंचे थे। मुंबई का मिजाज ही कुछ ऐसा था कि कोई भी गम, कोई भी हादसा उसके बिंदास स्वभाव को बदल नहीं पाता था।

मुझे 1985 की वह शाम याद है, जब पत्रकारिता में अपने प्रशिक्षण के दौरान मुझसे कहा गया था कि मैं बांद्रा फोर्ट में जाकर वहां पर चरस लेने वाले बच्चों से मिलकर एक रिपोर्ट तैयार करूं। क्या शाम के धुंधलके में मुझे वहां जाते डरना चाहिए था? क्या अपने साथ किसी पुरुष सहकर्मी को ले जाना चाहिए था या उस रिपोर्ट को करने से ही इनकार कर देना चाहिए था? मुंबई में रहने वालों के पास इनमें से किसी बात का विकल्प नहीं होता। उस दिन अगर शाम के धुंधलके में हल्की फुहारों के बीच भीगती-भागती बांद्रा फोर्ट नहीं जाती, तो जिंदगी में एक बेहतरीन अनुभव पाने से वंचित रह जाती। मुंबई में सुनसान, बियाबान और शहर से अलग-थलग जगहों पर सुरक्षा को लेकर कभी सवाल नहीं उठा था। वहां के चरसी बच्चों से मिलना, उनकी जिंदगी के बारे में जानना और उन सबके साथ सी रॉक होटल (1993 में बम ब्लास्ट के बाद यह होटल बंद हो गया) के सामने एक ठेले पर खड़े होकर बड़ा पाव खाना कितना कुछ दे गया था मुझे। रात को आठ बजे वहां से बाहर निकलकर बांद्रा स्टेशन के लिए ऑटो लेते समय एक क्षण को नहीं लगा कि मेरे साथ कोई दुर्घटना हो सकती है। मुंबई की लोकल ट्रेनें अपने आप में एक पाठशाला थीं। खासकर सेकेंड क्लास के डिब्बे, उनमें चलने वाले बेशुमार बिजनेस, खाने-पीने की चीजों से लेकर घर-गृहस्थी के तमाम जरूरी सामान उनमें मिल जाते थे। इसके अलावा भजन मंडलियां, अंताक्षरी टीमें लंबे सफर को आसान बनाने का काम करती थीं। उसी डिब्बे में मैंने एक औरत को बच्चा जनते देखा था। कैसे मिनट भर में रेल-डिब्बे की औरतों के बड़े समूह ने अपनी साड़ी खोल उसका परदा-सा तान दिया था और पल भर में पानी से लेकर टॉवेल तक का इंतजाम हो गया था और जब लोकल ट्रेन दादर पहुंची, तो जच्च-बच्चा, दोनों को वहां सकुशल उतारा गया था।

मुंबई का यह चरित्र बहुत जल्दी आपमें भी वहीं बिंदासपन और हर मुश्किल का मुकाबला करने का हौसला दे जाता था। मुंबई शहर, तब बंबई हुआ करता था। अपने सपनों के शहर को यों स्वरूप बदलते देखना वैसा ही दर्द देता है, जैसे अपने किसी अंतरंग रिश्ते को खत्म होते देखना। औरतों से छेड़खानी, हमला, बलात्कार, हत्या देश के हर हिस्से में होते आए हैं और थम नहीं रहे हैं। यहां रहने वाली स्त्रियों को इस बात का अंदेशा होता है कि वे अपने कदमों को कहां समेट लें। मुंबई को यह बीमारी कैसे लग गई? जिस शहर में स्त्रियों की सुरक्षा कभी चिंता का विषय नहीं थी, वहां पिछले कुछ साल में यह सबसे बड़ी समस्या बनकर उभरी है। पिछले साल मुंबई में एक परिचित की सहेली पर दिनदहाड़े उसके विक्षिप्त और विवाहित प्रेमी ने चाकू से हमला कर दिया और महीनों अस्पताल में रहने के बाद आज तक वह इस सदमे और आघात से ऊपर नहीं आ पाई है। मुंबई की अलियों-गलियों में सुबह-रात अकेली घूमने वाली वह जांबाज पत्रकार आज अकेले नुक्कड़ की दुकान तक जाने से डरती है। वह विक्षिप्त प्रेमी कुछ महीने जेल में रहने के बाद अब बेल पर बाहर है और नित नए नंबरों से फोन करके उसे धमकाता रहता है।

सत्ताईस साल की युवा पल्लवी पुरकायस्था की जघन्य हत्या बिल्डिंग के वॉचमैन ने की। मुंबई में रहने वाली हजारों हजार पेइंग गेस्ट और अकेली रहने वाली कामकाजी युवतियां इस घटना को याद भर करके सिहर उठती हैं। पिछले महीने मुंबई की लोकल ट्रेन में एक नर्स के साथ बलात्कार की कोशिश की गई, वह भी अल सुबह। बस स्टॉप, लोकल ट्रेनों में छेड़खानी की वारदातें बढ़ती जा रही हैं। हाल ही में शक्ति मिल कंपाउंड में एक बाईस साल की काम पर निकली युवती का सामूहिक बलात्कार इस बात को पूरी तरह से रेखांकित करता है कि मुंबई की वह संस्कृति अब उसके हाथ से खिसक रही है। जो शहर अपना असर दूसरों पर छोड़ता था, अब दूसरों के असर का शिकार बनने लगा है। एक समय था, जब मेरे घर काम करने वाली नौकरानी मंदा अपनी नन्ही बेटियों को घर में अकेला छोड़ काम पर आती थी और पूरे आत्मविश्वास के साथ कहती थी, ‘ही माझी मुंबई आहे, यहां किसी की हिम्मत नहीं कि मेरी बेटियों को हाथ लगाए।’ अब मंदा से पूछने को जी करता है कि क्या आज भी वह अपनी बेटियों या पोतियों के लिए ऐसा ही कुछ कहती होगी और उतनी ही हिम्मत से उन्हें मुंबई में जीने का हौसला देती होगी? ये हौसला और हिम्मत जो देश के दूसरे शहर मुंबई से उधार लेते थे, अब कहां जाएंगे? मुंबई को बदलने का कोई हक नहीं है। मुंबई की रूह के साथ बलात्कार सिर्फ वहां की महिलाओं को ही नहीं, पूरे देश को भारी पड़ेगा।  

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