Wednesday 28 August 2013

एक संपूर्ण पुरुष की लीला

कृष्ण सम्पूर्ण पुरुष थे। उनके चेहरे पर मुसकान और आनंद की छाप बराबर बनी रही और खराब से खराब हालत में भी उनकी आंखें मुस्कराती रहीं। चाहे दु:ख कि
तना ही बड़ा क्यों न हो, कोई भी ईमानदार आदमी वयस्क होने के बाद अपने पूरे जीवन में एक या दो बार से अधिक नहीं रोता। राम अपने पूरे वयस्क जीवन में दो या शायद केवल एक बार रोए। राम और कृष्ण के देश में ऐसे लोगों की भरमार है, जिनकी आंखों में बराबर आंसू डबडबाए रहते हैं और अज्ञानी लोग उन्हें बहुत भावुक आदमी मान बैठते हैं। एक हद तक इसमें कृष्ण का दोष है। वे कभी नहीं रोए। लेकिन लाखों को आज तक रुलाते रहे हैं। जब वे जिन्दा थे, वृन्दावन की गोपियां इतनी दु:खी थीं कि आज तक गत गाए जाते हैं :
निसि दिन बरसत नैन हमारे
कंचुकि पट सूखन नहिं कबहूं उर बिच बहत पनारे।
उनके रुदन में कामना की ललक भी झलकती है, लेकिन साथ ही साथ इतना सम्पूर्ण आत्मसमर्पण है कि ‘स्व’ का कोई अस्तित्व नहीं रह गया हो। कृष्ण एक महान प्रेमी थे, जिन्हें अद्भुत आत्मसमर्पण मिलता रहा और आज तक लाखों स्त्री-पुरुष और स्त्री वेष में पुरुष, जो अपने प्रेमी को रिझाने के लिए स्त्रियों जैसा व्यवहार करते हैं, उनके नाम पर आंसू बहाते हैं और उनमें लीन होते हैं। जन्म से मृत्यु तक कृष्ण असाधारण, असंभव और अपूर्व थे। उनका जन्म अपने मामा की कैद में हुआ, जहां उनके माता व पिता, जो एक मुखिया थे, बन्द थे। उनसे पहले जन्मे भाई और बहन, पैदा होते ही मार डाले गए थे।

एक झोली में छिपा कर वे कैद से बाहर ले जाए गए। उन्हें जमुना के पार ले जाकर सुरक्षित स्थान में रखना था। गहराई ने गहराई को खींचा, जमुना बढ़ी और जैसे-जैसे उनके पिता ने झोली ऊपर उठाई, जमुना बढ़ती गई, जब तक कि कृष्ण ने अपने चरणकमल से नदी को छू नहीं लिया। कई दशकों के बाद उन्होंने अपना काम पूरा किया। उनके सभी परिचित मित्र या तो मारे गए या बिखर गए। कुछ हिमालय और स्वर्ग की ओर महाप्रयाण कर चुके थे। उनके कुनबे की औरतें डाकुओं द्वारा भगाई जा रही थीं। कृष्ण द्वारिका का रास्ता अकेले तय कर रहे थे। विश्रम करने वह थोड़ी देर के लिए, एक पेड़ की छांह में रुके। एक शिकारी ने उनके पैर को हिरन का शरीर समझकर बाण चलाया और कृष्ण का अंत हो गया। उन्होंने उस क्षण क्या किया? क्या उन्होंने अपना हाथ बांसुरी पर अंतिम दैवी आलाप छेड़ा? या मुस्कान के साथ हाथ में बांसुरी लेकर ही संतुष्ट रहे? उनके दिमाग में क्या-क्या विचार आए? जीवन के खेल जो बड़े सुखमय, यद्यपि केवल लीला-मात्र थे, या स्वर्ग से देवताओं की पुकार, जो अपने विष्णु के बिना अभाव महसूस कर रहे थे?

उन्होंने महाभारत के समय में एक ऐसे आदमी से आधा झूठ बुलवाया, जो अपने जीवन में कभी झूठ नहीं बोला था। उन्होंने सूर्य को छिपा कर नकली सूर्यास्त किया ताकि उस गोधूलि में एक बड़ा शत्रु मारा जा सके। उसके बाद फिर सूरज निकला। वीर भीष्म पितामह के सामने उन्होंने नपुंसक शिखंडी को खड़ा कर दिया ताकि वे बाण न चला सकें, और खुद सुरक्षित आड़ में रहे। उन्होंने अपने मित्र की मदद स्वयं अपनी बहन को भगाने में की। लड़ाई के समय पाप और अनुचित काम के सिलसिले में कर्ण का रथ एक उदाहरण है। निश्चय ही कर्ण अपने समय में सेनाओं के बीच सबसे उदार आदमी थे, शायद युद्ध-कौशल में भी सबसे निपुण था, और अकेले अर्जुन को परास्त कर देता। उसका रथ युद्धक्षेत्र में फंस गया। कृष्ण ने अर्जुन से बाण चलाने को कहा। कर्ण ने अनुचित व्यवहार की शिकायत की। इस समय महाभारत में एक अपूर्व वक्तृता हुई जिसका कहीं कोई जोड़ नहीं, न पहले न बाद में। कृष्ण ने कई घटनाओं की याद दिलाई और हर घटना के कवितामय वर्णन के अंत में पूछा ‘तब तुम्हारा विवेक कहां था?’ विवेक की इस धारा में कम से कम उस दौरान में विवेक और आलोचना का दिमाग मंद पड़ जाता है। द्रौपदी का स्मरण हो आता है कि दुर्योधन के भरे दरबार में कैसे उनकी साड़ी उतारने की कोशिश की गई। वहां कर्ण बैठे थे और भीष्म भी, लेकिन उन्होंने दुर्योधन का नमक खाया था।

यह कहा जाता है कि कुछ हद तक तो नमक खाने का असर जरूर होता है और नमक का हक अदा करने की जरूरत होती है। कृष्ण ने साड़ी का छोर अनन्त बना दिया, क्योंकि द्रौपदी ने उन्हें याद किया। उनके रिश्ते में कोमलता है, यद्यपि उसका वर्णन नहीं मिलता है। कृष्ण के भक्त उनके हर काम के दूसरे पहले पेश करके सफाई देने की कोशिश करते हैं। उन्होंने मक्खन की चोरी अपने मित्रों में बांटने के लिए किया, उन्होंने चोरी अपनी मां को पहले तो खिझाने और फिर रिझाने के लिए किया। उन्होंने अपने लिए कुछ भी नहीं किया, या माना भी जाए तो केवल इस हद तक कि जिनके लिए उन्होंने सब कुछ किया वे उनके अंश भी थे। उन्होंने राधा को चुराया, न तो अपने लिए और न राधा की खुशी के लिए, बल्कि इसलिए कि हर पीढ़ी की अनगिनत महिलाएं अपनी सीमाएं और बंधन तोड़ कर विश्व से रिश्ता जोड़ सकें। इस तरह की हर सफाई गैर-जरूरी है। दुनिया के महानतम गीत भगवद्गीता के रचयिता कृष्ण को कौन नहीं जानता? दुनिया में हिन्दुस्तान एक अकेला देश है, जहां दर्शन को संगीत के माध्यम से पेश किया गया है, जहां विचार बिना कहानी या कविता के रूप में परिवर्तित हुए गाए गए हैं।

भारत के ऋषियों के अनुभव उपनिषदों में गाए गए हैं। कृष्ण ने उन्हें और शुद्ध-रूप में निथारा। यद्वपि बाद के विद्वानों ने एक और दूसरे निथार के बीच विभेद करने की कितनी ही कोशिश की है। कृष्ण ने अपना विचार गीता के माध्यम से ध्वनित किया। उन्होंने आत्मा के गीत गाए। आत्मा को मानने वाले भी उनके शब्द चमत्कार में बह जाते हैं जब वह आत्मा का अनश्वर जल और समीर की पहुंच से बाहर तथा शरीर का बदले जाने वाले परिधान के रूप में वर्णन करते हैं। उन्होंने कर्म के गीत गाए और मनुष्य को, फल की अपेक्षा किए बिना और उसका माध्यम या कारण बने बिना, निर्लिप्तता से कर्म में जुटे रहने के लिए कहा। उन्होंने समत्वम्, सुख और दु:ख, जीत या हार, गर्मी या सर्दी, लाभ या हानि और जीवन के अन्य उद्वेलन के बीच स्थिर रहने के गीत गाए।

हिन्दुस्तान की भाषाएं एक शब्द ‘समत्वम्’ के कारण बेजोड़ हैं, जिससे समता की भौतिक परिस्थितियों और आंतरिक समता दोनों का बोध होता है। इच्छा होती है कि कृष्ण ने इसका विस्तार से बयान किया होता। ये एक सिक्के के दो पहलू हैं- समता समाज में लागू हो और समता व्यक्ति का गुण हो, जो अनेक में एक देख सके। भारत का कौन बच्चा विचार और संगीत की जादुई धुन में नहीं पला है। उनका औचित्य स्थापित करने की कोशिश करना उनके पूरे लालन-पालन की असलियत से इंकार करना है। एक मानी में कृष्ण आदमी को उदास करते हैं। उनकी हालत विचारे हृदय की तरह है जो बिना थके अपने लिए नहीं बल्कि निरंतर दूसरे अंगों के लिए धड़कता रहता है। हृदय क्यों धड़के या दूसरे अंगों की आवश्यकता पर क्यों मजबूती या साहस पैदा करे? कृष्ण हृदय की तरह थे, लेकिन उन्होंने आगे आने वाली हर संतान में अपनी तरह होने की इच्छा पैदा की है।

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