इंडियन मिलिट्री रिव्यू के ताजा अंक में मेजर जनरल (रिटायर्ड) जी डी बख्शी ने कुछ अवकाश प्राप्त सैन्य अफसरों की सहायता से एक खाका खींचा है। उनकी परिकल्पना है कि चीन हमारे ऊपर देपसांग घाटी इलाके में जून 2014 में अचानक हमला बोलेगा। ऐसा वह इसलिए करेगा, क्योंकि वह भारत को आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरने से पहले ही दबा देना चाहता है। इस बड़े आलेख में जनरल बख्शी हमारी थलसेना और भारत-तिब्बत सीमा पुलिस की भयंकर क्षति का आकलन करते हैं। उनके इस काल्पनिक संघर्ष में सिर्फ वायुसेना हमारी रक्षक साबित होती है और उसके जांबाज इस हार को जीत में तब्दील कर देते हैं। अवकाश प्राप्त अफसरों की सहायता से लिखे गए इस लेख के संदेश साफ हैं। पहला- गृह, विदेश और रक्षा मंत्रालय में उचित तालमेल का अभाव, दूसरा- राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और तीसरा- अपमानजनक पराजय के पचास साल बाद भी असलियत के प्रति हमारी अनदेखी।
इस लेख को महज कपोल-कल्पना कहकर नकारा नहीं जा सकता। चीन ने जिस इलाके में घुसपैठ की थी, वहां तक पहुंचने के लिए हमारे फौजियों को चार से 12 दिन की दुर्गम पदयात्रा करनी पड़ती है। इसके उलट ड्रैगन ने अपनी सीमा तक सड़कों का जाल बिछा रखा है। उसके जवान ट्रकों में बैठकर वहां पहुंचते हैं। यह भी सच है कि हमारी प्रहारक क्षमता में पिछले सालों में लगातार कमी आई है। मिग बमवर्षक पुराने पड़ चुके हैं और घोटालों से घबराई सरकारें जरूरी हथियार खरीदने में हिचकती रही हैं। गजब देखिए, बोफोर्स के बाद अभी तक थलसेना को मध्यम दूरी की मारक क्षमता वाली कोई तोप हासिल नहीं हुई है। गुजरे 14 वर्षों में तोपों की तकनीक में खासा सुधार हुआ है, यानी हमारी प्रहारक क्षमता कमजोर और पुरानी पड़ चुकी है। पाकिस्तान और चीन प्रतिरक्षा के मामले में हमसे ज्यादा चौकस भी साबित हुए हैं। उम्मीद है कि आजादी की वर्षगांठ के मौके पर हमारे सियासतदां गंभीरता से इन सवालों पर गौर फरमाएंगे। यह समय अपनी सीमाओं की सुरक्षा को और मजबूत करने का है।
क्या हमारे ‘माननीय’ लोग ऐसा कर रहे हैं? यकीनन नहीं। हमारे सारे सियासतदां इस समय सिर्फ अगले चुनावों के परिणाम पर नजर गड़ाए हुए हैं। इसके लिए देश के सामाजिक ताने-बाने को कमजोर करने की साजिशें भी चल रही हैं। मैंने पिछले कई लेखों में अनुरोध किया है कि तरह-तरह से धार्मिक, सामाजिक और क्षेत्रीय संतुलनों को तहस-नहस करने का सुनियोजित प्रयास हो रहा है। हमारे देश में परंपरा रही है कि जन्मदिन के मौके पर हम बड़ों का आशीर्वाद लेते हैं और अपनी गलतियों को न दोहराने का संकल्प भी करते हैं। क्या आजादी की वर्षगांठ के मौके पर हमारे सियासती सूरमा ऐसा कोई नेक काम करेंगे? गौर करें। मामला सिर्फ सरहदों की सुरक्षा तक ही सीमित नहीं है। हम फिलवक्त जिस दुनिया में रहते हैं, वह अर्थ प्रधान है। 2008 की मंदी ने साबित किया था कि भारत की माली बुनियाद बेहद कमजोर है। होना यह चाहिए था कि पक्ष और प्रतिपक्ष के सारे जिम्मेदार लोग इस पर गंभीर चर्चा करते और किसी निष्कर्ष को हासिल करते, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। यही वजह है कि यूरोपीय यूनियन में जब दिवालियेपन ने दस्तक देनी शुरू की, तो हमारी आर्थिक सेहत एक बार फिर डांवाडोल हो गई।
आंकड़े बताते हैं कि इस दौरान अमीर और अमीर हो रहे हैं और गरीब पहले से ज्यादा मुफलिस। प्रति व्यक्ति आय अगर बढ़ी है, तो मुद्रास्फीति से जन्मी महंगाई ने मध्यम वर्ग तक का जीना मुहाल कर दिया है। ऐसे में, जब कुछ लोग दावा करते हैं कि एक या पांच रुपये में पेट भरा जा सकता है, तो लगता है कि हम हस्तिनापुर के उन अंधियारे दिनों में लौट गए हैं, जब हमारा शासक ‘नेत्रहीन’ हुआ करता था। एक अंधे हुक्मरां और उसके कुनबे की लिप्सा ने समूचे राष्ट्र को महाभारत के हवाले कर दिया था। आज तो हर तरफ दृष्टिविहीन राजनीतिज्ञ या तो सत्ता का सुख भोग रहे हैं, या फिर लोकतंत्र से उपजे विपरीत राजयोग का लाभ उठा रहे हैं। स्वतंत्रता के इस पावन मुकाम पर हमें इस पर भी गौर करना चाहिए। केंद्र और राज्यों का मामला भी गंभीर दौर से गुजर रहा है। क्या कमाल है! सूबाई सूबेदार अब सीधे-सीधे केंद्रीय सत्ता को ही चुनौती देने लगे हैं। नवोदित क्रिकेटर परवेज गुलाम रसूल को न खिलाए जाने पर उमर अब्दुल्ला इशारों-इशारों में क्षेत्रवाद और कश्मीर से अन्याय का मुद्दा उठा देते हैं। एक आईएएस के निलंबन के मामले पर उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार जिस तरह आमने-सामने हो जाती हैं, उससे हमारी राह में आशंकाओं के नए कांटे ही बिछे नजर आते हैं।
इसी तरह, तेलंगाना की घोषणा क्या हुई कि तमाम राज्यों में पृथकतावादी ताकतें सक्रिय हो गईं। यदि इन सब की मांग मान ली जाए, तो देश कम से कम पचास सूबों में बंट जाएगा। यह एक खतरनाक संकेत है। राजनीतिज्ञों ने जिस तरह देश को प्रादेशिक राजधानियों और दिल्ली में बांटना शुरू किया है, उससे हमारी संप्रभुता पर भी खतरे पैदा हो गए हैं। हर रोज हमारे राष्ट्र की देह में कैंसर की तरह अपने पैर पसारता ‘माओवाद’ इसका उदाहरण है। मैंने झारखंड में माओवादियों के डर से कई थानों के मुख्य-द्वार दिन में भी बंद देखे हैं। सवाल उठता है, डरते-कांपते प्रहरियों से हम अपने अमन पसंद नागरिकों की सुरक्षा कैसे करवा सकते हैं? इन सवालों पर गौर करना जरूरी है। इनके जवाब खोजे बिना यह राष्ट्र-राज्य अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच सकता। इसीलिए अनुरोध है कि स्वतंत्रता दिवस को सिर्फ छुट्टी न मानें। अपने दिमाग को हरकत दें, क्योंकि यह देश सिर्फ कुछ राजनेताओं या नौकरशाहों का ही नहीं है। इस पर हमारा हक किसी से कम नहीं है और इसी नाते कुछ कर्तव्य भी हैं, जिनकी हम अनदेखी नहीं कर सकते।
कुछ निराशावादी मानते हैं कि भारत कमजोर और बेबस है। वे यह भी कहते हैं कि आम आदमी कर भी क्या सकता है? उन्हें भूलना नहीं चाहिए कि जिस आजाद भारत का दाना-पानी उन्हें पोसता है, उसे पाने के लिए हमारे पुरखों ने लगभग सौ साल उन अंग्रेजों से लोहा लिया था, जिनकी हुकूमत में खुद सूरज भी नहीं डूबता था। यह समय आत्मदया का नहीं, बल्कि आत्मनिरीक्षण का है।
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