Saturday 22 March 2014

हाय राम 'काम ही काम'

धूप में फुर्सत से बाल सुखा रही थीं वंदना। नहाकर आई थीं, गुनगुनी धूप थी। कामवाली सारा काम करके निकल गई थी। पति भी ऑफिस पंहुच चुके थे। लंच पर भी नहीं आने वाले थे। बच्चे स्कूल में थे। मोबाइल की घंटी बजी, कॉल पिक की तो उधर उनकी दोस्त मधुमिता थीं। कहां रहती हो आजकल? न कोई फोन और न ही कोई हालचाल? सब ठीक तो है न? बिना रुके बोल रही थीं वे? आवाज में एक चिंता थी। वंदना बोलीं, 'क्या करूं टाइम ही नहीं मिलता। बहुत दिनों से सोच रही थी कि तुमसे बात करूं, लेकिन हर दिन यूं ही निकल जाता है। बिल्कुल भी फुर्सत नहीं मिलती। सुबह इनको ऑफिस भेजना, फिर बच्चों को..' समय नहीं मिलने और हमेशा बिजी रहने की गाथा शुरू कर दी वंदना ने। आखिर मधुमिता ने कहा कि कोई बात नहीं, कभी टाइम निकालकर फोन कर लिया करो। बात खत्म हो गई और वंदना को एक्सक्यूज मिल गया।
वंदना ने व्यस्तता के बहाने खुद को भारमुक्त जरूर कर लिया, लेकिन इस बीच उन्होंने मधुमिता की आत्मीयता को कम जरूर कर दिया। वंदना की तरह ही कुछ महिलाएं हर वक्त यह कहती हुई दिखाई देती हैं कि क्या करें टाइम ही नहीं मिलता। व्यस्त दिखने का दिखावा उनकी आदत में शुमार हो जाता है। इस आदत के कारण वे खुद भुलावे में रहती हैं। न तो अपना इंप्रूवमेंट कर पाती हैं और न ही किसी की मदद। कई बार उनके हाथ से कई अवसर भी छूट जाते हैं, जो इस सिंड्रोम में नहीं फंसी हैं वे एक साथ कई काम कर पाने में सक्षम नजर आती हैं।
कर लेती हूं मैनेज
-अगर आप अभी मुझे आने के लिए कहेंगी तो मैं कह दूंगी कि मैं नहीं आ सकती। मैं बिजी हूं, मेरा आना पॉसिबल नहीं है, क्योंकि मेरे हसबैंड जतिन बीमार हैं और उन्होंने अपने ऑफिस से छुट्टी ले रखी है। आप समझ गई होंगी कि मैं समय होने की बात तभी करती हूं जब वास्तव में मुझे कोई जरूरी काम होता है। मैं प्रोफेशनली क्वालीफाइड हूं, एमसीए किया है, लेकिन अपने सात वर्षीय बेटे के कारण जॉब नहीं करती हूं। सारा समय घर के कामों में ही निकल जाता है। अगर एक-आधे घंटे फुरसत मिलती भी है तो अखबार और टीवी पर नजर मार लेती हूं।' सुबह पांच बजे से लेकर रात के नौ बजे तक घर-बाहर के काम निपटाने वाली होममेकर भावना बोरा की न्यूक्लियर फैमिली है, लेकिन बच्चे और पति की हर जिम्मेदारी उठाते हुए वह बेहतर टाइम मैनेज करती हैं। अगर उन्हें कोई मिलने या बात करने के लिए कहता है तो वे विनम्रता से उससे वीकएंड में आने या फोन करने की गुजारिश कर लेती हैं। वह कहती हैं, 'मेरा बिजी शेड्यूल रहता है, लेकिन प्रोग्राम फिक्स करते समय हॉलीडेज या ब'चे के ऑफ का ख्याल रखती हूं। सबसे बड़ी बहू हूं। रिश्तेदार आते रहते हैं, लेकिन मैं समय निकाल ही लेती हूं। अपना शेड्यूल चेंज करके मैनेज कर लेती हूं।'
बीती जिंदगी बिजी-बिजी
अगर आप व्यस्त होने का बहाना करती हैं तो इसका सीधा अर्थ यह होता है कि आप किसी के काम नहीं आने वालीं। ऐसे में जरा सोचिए कि जब आपको किसी से कोई जरूरत पड़ेगी तो आपको कौन पूछेगा? ऐसा सोचती हैं घर से ही अपने ब्यूटी पार्लर का काम करने वाली कामिनी। वह व्यस्त रहती हैं, लेकिन कहती हैं, 'जब हम घर में यह कहते रहते हैं कि मैं बिजी हूं, मैं बिजी हूं तो हमें भी लगने लगता है कि हम बिजी ही हैं। इसके बाद हमें न कुछ करने की इच्छा होती है और न ही कुछ सोचने की। आप खुद देखिए कि कुछ महिलाएं इन्हीं चौबीस घंटों में बहुत से उत्पादक काम कर डालती हैं और कुछ का जीवन यूं ही व्यस्तता में निकल जाता है। अगर हम हमेशा बिजी रहने का बहाना करेंगे तो हमारी जरूरत के समय हमें कौन पूछेगा?'
नहीं करती शो ऑफ
'मैं कभी भी काम का रोना लेकर नहीं बैठती। मेरे पास पड़ोसी आ जाएं तो भी मैं अपने काम या व्यस्तता को शो ऑफ नहीं करती। संडे को बहुत से काम होते हैं, इसलिए उम्मीद करती हूं कि कोई न आए, लेकिन अगर कोई आने के लिए पूछता है तो कभी यह नहीं कह पाती कि टाइम नहीं है। बाद में बेशक सोचूं कि अगर ये नहीं आते तो हमारा काम हो जाता।' पेशे से टीचर हैं नीतू सिंह। छोटा बेटा भी है और हर दिन व्यस्तता में गुजरता है, फिर भी उनको 'टाइम नहीं है' कहने की आदत नहीं। हां, वह काम की प्रायरिटी जरूर देखती हैं। वह कहती हैं, 'कुछ-कुछ काम पर भी डिपेंड करता है। कुछ भी कहने से पहले काम की प्रायरिटी देखती हूं। बहुत पंक्चुअल नहीं हूं, लेकिन पति के कोऑपरेटिव नेचर के कारण सब मैनेज कर लेती हूं।'
अहमियत का भुलावा
एचआर प्रोफेशनल वेदांगी कौशल की आदत हो गई है खुद को बिजी बताने की। अपनी अहमियत बनाए रखने के भुलावे में रहने की। उनका ऐसा एटीट्यूड उनके अंदर की खासियतें ही खत्म कर रहा है, लेकिन उन्हें इसका अहसास तक नहीं। वह कहती हैं, 'देखिए, कभी-कभी तो कहना ही पड़ता है कि मैं बिजी हूं। अगर मैं ऐसा न बोलूं तो मेरी टेबल के सामने खड़े रहने वालों की भीड़ बढ़ती ही जाएगी। सभी को जवाब देते रहना मेरे वश की बात नहीं है। मैं तो बिना सिर उठाए ही बोल देती हूं कि टाइम नहीं मिला और मुझे इसमें कुछ गलत भी नहीं लगता।' वेदांगी जैसी महिलाएं व्यस्त नहीं, बल्कि व्यस्तता के मनोविकार की शिकार होती हैं। इससे उनकी ग्रोथ भी रुक सकती है। अगर टाइम नहीं है तो आवश्यकता है टाइम मैनेजमेंट की। आप अपने काम जितने व्यवस्थित तरीके से करेंगी, उतना ही अच्छा और जल्दी होगा। कुछ तो 'बिजी फॉर नथिंग सिंड्रोम' की शिकार होती हैं। बच्चे को टीवी के आगे बिठा देती हैं और समझती हैं कि बच्चे को देख रही हैं। हर अधूरे काम की वजह बिजी होना ही बताती हैं। इस गलत आदत का इस्तेमाल अपनी कमी छुपाने के लिए करती हैं, जबकि ऐसा करना ठीक नहीं।
बढ़ गया है खुद पर फोकस
पिछले पांच सालों में ट्रेंड काफी बदला है। एक अलग सा चेंज आया है। सोसायटी फास्ट मूविंग हो गई है। मैं मिडिल क्लास की बात कर रही हूं। नॉनवर्किंग में ऐसा ज्यादा है। लेडीज का सोशलाइजेशन हद से ज्यादा बढ़ गया है। इनका फोकस खुद पर ज्यादा हो गया है। आप दिन में दिल्ली के किसी रेस्टोरेंट में चले जाइए, आपको लेडीज के कई ग्रुप किटी पार्टी करते हुए मिल जाएंगे। अब अगर महीने में छह बार लंच पर जाना हो तो टाइम कैसे मिलेगा? इन सोशल गैदरिंग्स के लिए अच्छे कपड़ों के साथ-साथ और सामान भी चाहिए, जिसके लिए मार्केट भी जाना पड़ता है। लाइफ को कॉम्पलिकेटेड बना लिया है लेडीज ने। बहुत कॉमन सी बात हो गई है यह कहना कि टाइम नहीं मिलता। जबकि वे चाहें, तो ढेरों ऑप्शन हैं उनके पास अपने टाइम को यूटीलाइज करने के।

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